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15 हजार साल प्राचीन स्वास्तिक चिह्न को शुभ के साथ-साथ क्यों जोड़ा जाता है दुख और अत्याचार से

आधुनिक युग में इसके दुरुपयोग से उत्पन्न भ्रम सांस्कृतिक प्रतीकों की पहचान पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

by Reeta Rai Sagar
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सेंट्रल डेस्क : स्वास्तिक, हम सभी इससे परिचित हैं। हर शुभ कार्य से पहले हम स्वास्तिक का चिह्न बनाते है और इसे बेहद शुभ मानते हैं। आज इसे वैश्विक स्तर पर पहचाना जाता है, यह एक ऐसा प्राचीन प्रतीक है, जिसकी ऐतिहासिक उपस्थिति लगभग 15,000 वर्षों पुरानी मानी जाती है। यह चिह्न अब तक 5 महाद्वीपों में पाया जा चुका है, जो उस काल की सभ्यताओं के आपसी संपर्क से पहले की बात है। यह सांस्कृतिक विकास के अध्ययन में एक जटिल और रोचक विषय प्रस्तुत करता है।

स्वास्तिक का उद्भव और प्रारंभिक चित्रण | स्वास्तिक के पुरातात्विक प्रमाण

पुरातात्विक खोजों में स्वास्तिक के चित्र प्राचीन संरचनाओं की दीवारों और पत्थरों पर उकेरे गए पाए गए हैं। कई बार यह चिह्न स्टार ऑफ डेविड जैसे अन्य प्रतीकों के समीप मिला है, जिससे प्रतीत होता है कि विभिन्न संस्कृतियों के बीच प्रतीकों की कोई समान या समानांतर भाषा रही हो। स्वास्तिक की उपस्थिति सिंधु घाटी सभ्यता, अमेरिकी मूल निवासियों की कलाकृतियों और फोनीशियन सभ्यता में भी पाई गई है। यूनानी संस्कृति में यह ज़ीउस का प्रतीक था, जो रोमन कला और मोज़ेक में प्रयुक्त हुआ और नॉर्स व जर्मेनिक हथियारों व कलाकृतियों पर अंकित किया गया।

विभिन्न सभ्यताओं में स्वास्तिक का सांस्कृतिक महत्व | स्वास्तिक का धार्मिक प्रतीकात्मक अर्थ

स्वास्तिक का व्यापक प्रसार इस प्रतीक की सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाता है। अनेक प्राचीन समाजों में यह सूर्य, समृद्धि, जीवन चक्र आदि से जुड़ा हुआ माना गया।
• हिंदू धर्म में दाहिनी ओर घूमता स्वास्तिक सूर्य और शुभता का प्रतीक है, जबकि बाईं ओर घूमता स्वास्तिक देवी काली और तांत्रिक शक्ति से संबंधित होता है।
• बौद्ध धर्म में यह बुद्ध के चरण चिह्नों को दर्शाता है और शुभता का प्रतीक है।
• जैन धर्म में स्वास्तिक सप्तम तीर्थांकर सुपार्श्वनाथ का प्रतीक है और यह चार गतियों—स्वर्ग, मनुष्य, तिर्यंच (पशु) और नरक का प्रतिनिधित्व करता है।
ये विभिन्न व्याख्याएं इस प्रतीक की धार्मिक और सांस्कृतिक गहराई को उजागर करती हैं।

स्वास्तिक के उद्भव और प्रसार से जुड़ी प्रमुख थ्योरी | स्वास्तिक का वैश्विक संजाल सिद्धांत

स्वास्तिक की प्राचीन और वैश्विक उपस्थिति को देखते हुए अनेक विद्वान इसके उद्भव को लेकर विविध सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि यह प्रतीक क्रो-मैग्नन युग तक जाता है और यह संभव है कि उस समय एक समुद्री सभ्यता रही हो, जिसने विश्व स्तर पर संपर्क स्थापित किया हो। यह परिकल्पना प्राचीन मानव समाज की क्षमताओं और संपर्कों की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देती है। हालांकि, यह एक अनुमान है और इसे सिद्ध करने के लिए और अधिक पुरातात्विक साक्ष्य की आवश्यकता है।

आधुनिक युग में स्वास्तिक का दुरुपयोग | नाजी पार्टी और प्रतीक की छवि का ह्रास

20वीं शताब्दी में जर्मनी की नाजी पार्टी द्वारा इस प्रतीक को अपनाने के बाद इसकी वैश्विक छवि में नकारात्मक परिवर्तन हुआ। इस दुरुपयोग के कारण यह चिह्न अब कुछ देशों में प्रतिबंधित भी है। स्वास्तिक को अब प्रायः घृणा और अत्याचार से जोड़कर देखा जाता है, जिससे उन संस्कृतियों के लिए चुनौती उत्पन्न हुई है, जिन्होंने इस प्रतीक को हजारों वर्षों से एक शुभ और पवित्र चिह्न के रूप में अपनाया था।

स्वास्तिक की पुनर्प्रतिष्ठा के प्रयास | सांस्कृतिक पहचान की पुनर्स्थापना

हाल के वर्षों में विभिन्न समुदायों द्वारा स्वस्तिक के मूल और सकारात्मक अर्थ को पुनः स्थापित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। उदाहरणस्वरूप, ऑस्ट्रेलिया में हिंदू समुदाय ने मांग की है कि नाजी प्रतीकों को ‘स्वास्तिक’ कहने की बजाय ‘नाजी प्रतीक’ कहा जाए, ताकि धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों का गलत प्रतिनिधित्व रोका जा सके। यह पहल सांस्कृतिक समझ और धार्मिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

शुभ प्रतीकों का सांस्कृतिक विकास और उनके पहचान का संघर्ष

स्वास्तिक का ऐतिहासिक सफर यह दिखाता है कि कैसे कोई प्रतीक समय, भूगोल और संस्कृति के माध्यम से बदलता है। इसकी प्राचीन उपस्थिति मानव सभ्यता की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाती है, वहीं आधुनिक युग में इसके दुरुपयोग से उत्पन्न भ्रम सांस्कृतिक प्रतीकों की पहचान पर प्रश्नचिह्न लगाता है। इस प्रतीक के गहन और विविध संदर्भों को समझकर ही हम मानव इतिहास की जटिलताओं और सांस्कृतिक विरासत को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं।

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