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Jharkhand Bureaucracy : नौकरशाही : प्रणाम, प्रणामी, हमनामी | Jharkhand IAS Controversy

jharkhand politics : झारखंड की नौकरशाही वाले मुहल्ले में हर दिन नए किस्से हैं। कभी कहानी का पूर्वार्ध सामने होता है, कभी उत्तरार्ध। यही वजह है कि जानने-समझने वाले अपने-अपने तरीके से इसकी व्याख्या करते हैं। हालिया प्रकरण भी कुछ ऐसा ही है। आखिर क्या चल रहा है अंदरखाने, जानें द फोटोन न्यूज के एक्जीक्यूटिव एडिटर की कलम से।

by Dr. Brajesh Mishra
Jharkhand bureaucracy
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Jharkhand bureaucracy : प्रणाम…। गुरु अचानक पीछे से उठी अभिवादन की ध्वनि से चौंक गए। पलट कर देखा। जाना-पहचाना चेहरा था। गुरु के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा। अरे तुम हो।‌ आओ-आओ बैठो। सुना है आजकल बड़ी भागदौड़ में हो। गुरु के सवाल में व्यंग्य छिपा था। लिहाजा उत्तर संग चेहरे पर हल्की मुस्कान तैर गई। नहीं-नहीं गुरु, भागदौड‍़ कहां? इतना फंसे थे कि निकल ही नहीं सके। गुरु बोले- हां सुना था मैंने। कुछ साहित्यिक चहलकदमी मचाए हुए थे। हां, गुरु। कभी-कभी सुकून के लिए किताबों की ओर लौटना पड़ता है।

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गुरु बोले- बेहतर प्रयास है। कभी-कभी हम जैसे नाचीज को भी याद कर लिया करो। गुरु के इस वाक्य से दो अर्थ निकल रहे थे। पहला- गुरु को आमंत्रण की अपेक्षा थी। दूसरा- मुलाकात नहीं होने की उलाहना दे रहे थे। दोनों स्थितियों में गुरु की असंतुष्टि भारी पड़ सकती थी। सो, बिना देर किए दंडवत कर दिया। कहा- अरे गुरु आपकी पहुंच से कहां दूर हैं? जब आदेश हो, हाजिर हो जाएं। गुरु बोले- यही तो परेशानी है। कुछ लोग आने के लिए बुलाने का इंतजार कर रहे।

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कुछ बुलाने पर न आने का बहाना खोज रहे। साफ था- गुरु की ट्रेन ने नौकरशाही वाली ट्रैक पकड़ ली थी। दरअसल, इन दिनों वनांचल में अलग तरह की भसड़ मची है। एक के बाद-एक बुलावा आ रहा है। कोई दाएं जा रहा है, कोई बाएं जा रहा है। कोई सात समंदर पार चैन नहीं ले पा रहा। किसी की भीष्म प्रतिज्ञा टूट रही। किसी का कवच-कुंडल बेदम हुआ जा रहा। गुरु की ट्रेन को स्टेशन तक पहुंचने के लिए हरी झंडी का इंतजार था। लिहाजा, सीधा पूछ लिया। गुरु ‘राय’ पर क्या राय है? कोई कह रहा दोस्त ही दुश्मन हो गया। कोई बता रहा अपने पुराने पाप हैं।

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कुछ का दावा है कि पूरा मामला पहले ही निपट गया है। आखिर कहानी है क्या? उम्मीद की किरण (Ray) कितनी है? गुरु को व्याख्या के लिए रोचक विषय मिल गया। बोले- पूरा मामला तुम्हारे आगमन की तरह प्रणाम से ही शुरू हुआ। प्रणाम पहले प्रणामी में बदला। फिर अपनों की हमनामी में। दावा किया गया तो जिस कागजात को खुद के हस्ताक्षर से मूल्यवान बनाया। फिर उसमें अपनों का मूल्य निर्धारित करा लिया। मामला करीब दो वर्ष पहले आमद शुल्क भुगतान के महकमे तक पहुंचा। पत्राचार का दौर शुरू हुआ।

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ऊपर-नीचे राय-मशवरा हुआ। बात इस पर आकर फंसी कि माता-पिता के होते बच्चों के आगे दादा-दादी का नाम ठीक है? नियम-कानून की किताबें खोली गईं। फिर इच्छानुसार परिभाषा लिखी गई। शोर तब उठा, जब एबीसीडी का खेल शुरू हुआ। फिलहाल तूफान से पहले वाली शांति है। जिन्न अगर बोतल में बंद रहे तो शांत, निकल जाए तो बवाल। गुरु ने लंबी कहानी दस वाक्य में समेट दी थी। मनन-मंथन के लिए विदा होने का वक्त था। गुरु उठे और बागान की ओर निकल लिए।

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