हुआ यूं कि जिले के सबसे बड़े अस्पताल में एक मरीज गई। वहां ट्रेनी डॉक्टरों ने मरीज का हुलिया देखकर अंदाजा लगा लिया। फिर, लगे हाथ सलाह दे दी कि यहां आपका ठीक से इलाज नहीं होगा। फलां डॉक्टरनी बढ़िया इलाज करती है। मरता क्या न करता, मरीज उसी डॉक्टरनी के नर्सिंग होम पहुंच गई। वहां पता चला कि जिनसे इलाज कराने गई थी, वही बेड पर भर्ती थी। यह देखकर मरीज को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन फिर दूसरे बड़े अस्पताल पहुंच गई। वहां इलाज हो गया। इलाज तो वहां भी हो जाता, जहां से उसे भड़काया गया था। यह एक बानगी है, सरकारी अस्पतालों को पलीता लगाने का। कैसे कोई अस्पताल सुधरने की बजाय दम तोड़ देता है, यहां देखने योग्य है। यह तब है, जब पिछली ही सरकार में बिना मौलिक सुविधा के इस अस्पताल का उद्घाटन करा दिया गया था।
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हेलमेट फाइन पर सवाल
थोड़े अंतराल के बाद एक बार फिर शहर के चुनिंदा थानों के सामने हेलमेट चेकिंग का दौर शुरू हो गया है। नया मामला, स्टेशन रोड का है, जहां बाइक पर पीछे बैठी एक महिला ने हेलमेट नहीं पहना था। वह अस्पताल से इलाज कराकर आ रही थी। लाख गिड़गिड़ाने पर भी खाकी का दिल नहीं पसीजा और दो हजार रुपये फाइन का फरमान जारी कर दिया। बेचारे बाइक सवार के पास पर्याप्त पैसे नहीं थे, तो उसे घटाकर एक हजार करने का अंतिम निर्णय सुना दिया गया। बेचारे ने किसी से मांगा तो 800 रुपये का ही जुगाड़ हो पाया। खाकी ने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया और जाने की अनुमति दे दी। लेकिन, जब बाइक सवार ने रसीद मांगी, तो उसे कह दिया गया कि रसीद नहीं मिलेगी। बेचारा, खुद को ठगा हुआ महसूस कर इस तरह वहां से निकला, जैसे जान बच गई हो।
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दर-ओ-दीवार का मसला
जब शहर की राजनीति में सबकुछ ठंडा चल रहा है, तो गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि एक नेताजी ने वादा किया था कि जीतते ही रास्ते में बाधा बनी दीवार को सबसे पहले बुलडोजर लेकर खुद तोड़ दूंगा। इस वादे को एक साल से ज्यादा हो गए, दीवार टस से मस नहीं हुई। इससे भी मजे की बात कि करीब छह माह पहले नेताजी इस दीवार को भूलकर एक पड़ोसी जिले की दीवार तोड़ने पर आमादा दिखे। मुख्यालय तक कागजी घोड़े तक दौड़ा दिए। प्रशासनिक हलचल भी ऐसी दिखी, मानो आज नहीं तो कल दीवार धराशाई हो जाएगी। लेकिन, अफसोस की बात है कि न वह दीवार गिरी, ना यह दीवार। इसके लिए तो खूनखराबा तक हो गया था। अब तो यही कहा जा रहा है कि कुछ वादे इस उम्मीद से किए जाते हैं कि जनता तो भूल ही जाएगी।
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बाघ-गाय का क्या मेल
बाघ-बकरी के किस्से तो सबने सुने होंगे, लेकिन बाघ और गाय का किस्सा नया- नया है। पिछले दिनों उपचुनाव के दौरान वाक-युद्ध चरम पर पहुंच गया था। इसी दौरान एक ऐसे नेता को गौमाता की उपजाति का दर्जा दे दिया गया, जिसे लोग बाघ या टाइगर के नाम से अब तक जानते थे। बस फिर क्या था, पलटवार तो होना ही था। उन्होंने भी एक दर्जन बार उसी शब्द को दोहराते हुए उस नेता को लानत भेजी, जिसने नेताजी का डिमोशन कर दिया था। इसी कड़ी में एक पुराने नेता ने सोशल मीडिया पर हमला करते हुए लंबा आलेख लिख दिया कि खुद को टाइगर की उपाधि मत दीजिए, आप उस संघर्ष में अकेले नहीं थे, सबने कंधा दिया था। बताया जाता है कि इस वार से आहत टाइगर सुस्ताने चला गया है। वह सोच रहा है कि क्या सचमुच वह गोमाता की ही उपजाति है।
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