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तमसो मा ज्योतिर्गमय : अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का पर्व है दीपावली

by Rakesh Pandey
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डॉ जंग बहादुर पाण्डेय

पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग

रांची विश्वविद्यालय, रांची

मोबाइल नंबर : 9431595318

 

कार्तिक अमावस्या की काली कसौटी-सी अंधेरी रात। चारों ओर अंधकार ही अंधकार। हाथ को हाथ नहीं सूझता। मानो मनु पुत्र घनघोर ध्वांत में तिमिंगल-सा तिलमिला उठा। उसने मंत्र वाणी में पुकारा ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात हम अंधकार से प्रकाश की ओर चलें। उसने वेदवाणी में गुहार मचाई: ‘स:नो ज्योति:’ हमें प्रकाश दीजिए। उसने बाइबल की भाषा में संकल्प व्यक्त किया- ‘लेट देयर बी लाइट एंड देयर वॉज  लाइट।’ बस, क्या था, जल उठे मिट्टी के अनगिनत दिए, बिल्कुल निर्वात पूर्ण निष्कम्प। सज गई दीपमालाएं और स्मरण दिलाने लगी उस ज्ञान आलोक के अभिनव अंकुर की, जिसने मनुष्य की कातर प्रार्थना को दृढ़ संकल्प का रूप दिया था-अंधकार से जूझना है, विघ्न बाधाओं के वक्षस्थल पर अंग चरण रोपना है, संकटों के तूफान का सामना करना है। परिणाम हुआ ज्योति के सिंह शावक के भय से भाग उठी तमिस्रा की कोटि-कोटि गज वाहिनी। बिंद उठे आलोक सर से उनके अंग-प्रत्यंग। धरती का प्रकाश स्वर्ग के सोपान को भी प्रकाशित करने लगा। खिल उठा खुशियों का सहस्त्रदल कमल, बजे उठे आनंद के अनगिनत सितार।

भारतीय सभ्यता और संस्कृति विश्व में प्राचीन है। भारतीय संस्कृति आस्था प्रधान रही है। सभ्यता यदि बाहरी कलेवर है, तो संस्कृति भीतरी आत्मा है। भारतीय संस्कृति में पर्व-त्योहारों का बड़ा महत्व है। इसमें अनेक पर्व और त्योहार हैं, जैसे-होली,दशहरा, दुर्गा पूजा, छट्ठ, मकर संक्रांति आदि। इन्हीं त्योहारों में एक है :दीपो का पर्व दीपावली।

        कहते हैं जिस दिन पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम लोक पीड़क रावण का संहार कर अयोध्या लौटे थे, उस दिन भारत के सांस्कृतिक एकता के अभिनव अभियान का अध्याय खुला था। इसे चिर स्मरणीय बनाने के लिए परस्पर नगर दीप जलाकर ज्योति पर्व मनाया गया था। कहते हैं तभी से दीपावली का शुभारंभ हुआ।

        यह भी कहा जाता है कि जब श्री कृष्ण ने नरकासुर जैसे आतताई का वध किया था, तब से यह प्रकाश पर्व मनाया जाने लगा। दीपों की अवली सजाकर और तभी से इस त्योहार का श्रीगणेश माना जाता है। कभी वामन विराट ने दैत्यराज बली की दानशीलता की परीक्षा ली थी, उसका दर्फ दलन किया था और तभी से उसकी स्मृति में यह आलोकोत्सव मनाया जाता है। जैन धर्म के महान तीर्थंकर वर्धमान महावीर इसी दिन पृथ्वी पर अपनी ज्योति फैलाकर महाज्योति में विलीन हो गए थे, इसीलिए भी इसका महत्व है। महान महर्षि स्वामी राम तीर्थ की भी यही जन्म एवं निर्माण की तिथि है। आधुनिक भारतीय समाज के निर्माता और आर्य जगत के मंत्र द्रष्टा स्वामी दयानंद का भी यही निर्माण दिवस है। इस प्रकार दीपावली पौराणिक सांस्कृतिक धार्मिक एवं आधुनिक कथा दीपों की संवाहिका है।

       दीपावली यद्यपि भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा की कहानी कहती है, तथापि इसमें संकीर्णता एवं संप्रदायिकता की बू नहीं है। दीपोत्सव के त्योहार पंचक को सब धर्मों का, सब जातियों का पंचायतन राष्ट्रीय त्योहार बना सके, तो हम राष्ट्रीय एकता का नेतृत्व कर सकेंगे।

         ,वसंत पंचमी यदि ज्ञान की आराधना का पर्व है, तो दीपावली अर्थ की आराधना का त्योहार, क्योंकि हमारे चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसमें अर्थ का स्थान भी कम महत्वपूर्ण नहीं। होली यदि रंगों का त्योहार है, तो दीपावली प्रकाश का, मथुरा वृंदावन की होली मशहूर है, तो मैसूर और कोलकाता की दुर्गा पूजा विख्यात है, जबकि अमृतसर और लखनऊ की दीपावली। इस दिन दीपों, मोमबत्तियों तथा बल्बों की ऐसी सजावट होती है कि लगता है 100 -100 राका रजनियां निष्प्रभ हो गई हैं। आकाश के देदीप्यमान नक्षत्र जैसे अवनी की गोद में विराज रहे हैं। लगता है चारों और ज्योति के निर्झर झड़ रहे हैं, प्रकाश के फव्वारे छूट पड़े हों।

   दीपावली के अवसर पर लाभ-शुभ लिखा जाता है। दरवाजों पर दीर्घायुष्य और कल्याण के प्रतीक स्वस्तिक के चिह्न बनाए जाते हैं तथा अष्टदलकमल पर आसीन धर्म,संपत्ति और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी पूजा के साथ हम अपने राष्ट्र लक्ष्मी का आवाहन करते हैं, ताकि हमारा राष्ट्र श्री संपत्ति में विश्व के किसी राष्ट्र से कम न रहे। किंतु आज हमारे राष्ट्र के अर्थ तंत्र का प्रमुख कर्णधार हमारा व्यापारी वर्ग है, जो अनुचित तरीके से धन कमाता है और उसे राष्ट्र हित में लगाने के बजाय स्वार्थ लिप्सा की तिजोरी में बलि की कैद में पड़ी लक्ष्मी की तरह बंद कर छोड़ता है। छिपा हुआ यह समस्त धन समाज के लिए वैसा ही हो जाता है, जैसा हाथ या पांव में बहता हुआ रक्त रुक जाए। शरीर में रूका हुआ रक्त जिस प्रकार बुढ़ापा लाता है, पक्षाघात ग्रस्त करता है, उसी प्रकार इस भांति अवतरित धन भी राष्ट्र में वार्धक्य ला रहा है, लकवा पैदा कर रहा है। हमें इस दिन ध्यान रखना चाहिए कि लक्ष्मी केवल एक वर्ग की वंशगता न हो जाएं, दासी न बन जाए, वरन वह राष्ट्र के सभी लोगों की हो सकें।

   हम दीपावली का त्योहार बहुत सोच समझ कर मनाएं। यह हमारे लिए एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व है। एक ओर यह हमारे महापुरुषों की गौरवमयी विजयगाथाओं से संबद्ध है, तो दूसरी ओर समग्र संसार के लिए प्रकाश कामना का प्रतीक है। हम मानव जाति को अंधकार से प्रकाश,असत्य से सत्य तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जाएं। तमसो मा ज्योर्तिगमय,असतो मा सद् गमय ,मृत्योर्मामृतंगमय हमारी इसी मंगल कामना की स्मारिका है दीपावली।

  आधुनिक हिंदी कविता के लोक प्रिय गीतकार गोपाल दास नीरज की दीपावली पर लिखी कविता की पंक्तियां सहसा याद आ रही हैं, जिसमें उन्होंने धरा को उठाने और गगन को झुकाने का अनुरोध किया है, तभी समाज में व्याप्त विषमता मिट सकेगी और समाज एवं राष्ट्र में एकता, नेकता और समता आ सकेगी:

 

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा

धरा को उठाओ,गगन को झुकाओ।

बहुत बार आई गई यह दिवाली

मगर तम जहां था,वहीं पर खड़ा है

बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक

कफन रात का हर चमन पर पड़ा है

न फिर सूर्य रूठे,न फिर स्वप्न टूटे

उषा को जगाओ,निशा को सुलाओ।

दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा

धरा को उठाओ,गगन को झुकाओ।

सृजन शांति के वास्ते है जरूरी

कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाए,

तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा

कि जब प्यार तलवार से जीत जाए।

घृणा बढ़ रही,अमा चढ़ रही है

मनुज को जिलाओ,दनुज को मिटाओ।

हम मानव समाज को समृद्धि के शिखर पर ले जाएं, हम सभी सुविधाओं के संभव द्वार खोलने में समर्थ हो सकें: इसकी साक्षी है दीपावली।दीपो का पर्व हमारे बाहर के अंधकार को भगाने का ही नहीं, वरन् अंतस के अंधकार को भी दूर  करने के संकल्प का दिवस है। एक दीप ऐसा भी बारें अंधकार भागे अंतस का। यह केवल एक राष्ट्र को मुक्त रखने की सौगंध रजनी नहीं, वरन समग्र संसार के राष्ट्रों को मुक्त रखने की मधुरात्रि है सुखरात्रि है।

 

आज जाओ मुक्ति के प्रज्वलित दीपक जलाएं।

और मानव दास्तां की शृंखलाएं टूट जाएं।

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