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‘ गैरसैंण ‘ गहराई में स्थित एक समतल मैदान

by The Photon News Desk
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प्रकृति ने हमारे लिए बहुत से रहस्य रख छोड़े हैं। खूबसूरत नज़ारे और उनसे जुड़ी बातों को अगर नज़दीक से देखने का प्रयास किया जाय तो समझ आएगा कि ये जितना ही रोमांचक होता है उतना ही दुरूह।
आइए जानें हिमालय में बसे एक ऐसे ही अप्रतिम जगह गैरसैंण के बारे में …

हिमालयी राज्य की एक और प्रमुख पहचान गैरसैंण की वजह से भी है जिसे प्रदेश की स्थाई राजधानी बनाए जाने की मांग लंबे समय से चली आ रही है। पर कई तरह के राजनीतिक कारणों से मामला अभी भी अधर में लटका हुआ है। हालांकि इसका भौगोलिक महत्व बहुत ज्यादा है।

दरअसल, गैरसैंण शब्द दो स्थानीय बोली के शब्दों से मिलकर बना है, गैर तथा सैंण। ‘ गैर’ इस क्षेत्र में कुमाऊनी तथा गढ़वाली दोनों भाषाओं में गहरे स्थान को कहते हैं तथा ‘सैंण’ शब्द मैदानी भू-भाग का पर्याय है यानि इसका तात्पर्य गहराई में स्थित समतल मैदान है।

इस मैदानी तथा प्रकृति के सबसे सुन्दरत भू-भाग को समूचे उत्तराखंड के बीचों-बीच स्थित एक सुविधा सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है और राज्य के मध्य में होने के कारण वर्षों से चले आ रहे पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थाई राजधानी के रूप में स्वीकार किया जाता है।

गैरसैंण का मैदानी भूभागों के बीचों-बीच स्थित होना इसका मुख्य बिन्दु है, जो पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए नितांत आवश्यक भी है। मेरा भी निजीतौर पर यही मानना है कि अगर उत्तराखंड की राजधानी देहरादून की बजाय गैरसैंण होती तो राज्य के हालात कुछ और होते। लेकिन ऐसा हो नहीं सका जिसका खामियाजा यहां दूरदराज के क्षेत्रों में रह रहे लोगों को आज भी भुगतना पड़ रहा है।

गांव के गांव किस तरह खाली हो रहे हैं, किस तरह से अच्छे खासे गांव घोस्ट विलेज में बदल गए हैं, वर्तमान में किसी से छुपा नहीं है। पलायन की जो भयावह स्थिति सामने आ रही है वह चौंकाने वाली है। स्थिति यह है कि पूरे राज्य की एक तिहाई जनसंख्या महज दो समतल भूभाग वाले जिलों में आकर बस गई है।

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गैरसैंण के अलावा गोपेश्वर भी यहां की प्रमुख जगहों में आता है। यह चमोली जिले का मुख्यालय है और सारी की सारी प्रशासनिक गतिविधियां यहीं से संचालित होती है। परन्तु इस शहर की पहचान इसके आस-पास स्थित मंदिरों की वजह से ज्यादा है। गोपेश्वर का प्रमुख आकर्षण पुराना शिव मंदिर, वैतामी कुंड को माना जा सकता है।

पहली बार 2009 में मेरा यहां आना हुआ था। उस समय पर्यटन विभाग की वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली परियोजना का मूल्यांकन करना था। विभाग का कार्यालय एक किराए के भवन में चल रहा था। उस समय सीमित मगर आसपास ठहरने के लिए कई तरह की सुविधाएं मौजूद थी।

मुझे ज्यादा दिन रुकना था इसलिए किराए पर एक कमरा ही ले लिया था जो मुझे महज तीन हजार महीने के हिसाब से मिल गया था। लेकिन तब से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है। इस जगह ने अपना अच्छा खासा विस्तार ले लिए है। इस बार की यात्रा में मैं पहले की तुलना में काफी अंतर देख रहा हूं।

सही मायने में एक ही जगह को दो बार देखने पर बीच में समय का एक अंतर आता है और समय का यही अंतर कल और आज के मध्य फर्क दर्शाता है। यह अंतर मैंने रुद्रप्रयाग में भी देखा था और अब चमोली में भी देख रहा हूं।

केदारनाथ की यात्रा जैसी भी रही हो पर वापसी बहुत ही आत्मिक अनुभव वाला रहा। नवोदय विद्यालय जाखधर से नीचे उतरने के क्रम में ही मुझे पता चल गया था कि यहां से गुप्तकाशी तकरीबन आठ और उखीमठ इक्कीस किमी की दूरी पर है। इस जगह पर यानी जाखधर आते वक़्त अगस्तमुनि और उखीमठ होकर ही तो आया था।

मैंने महसूस किया कि आने में जो साइकिल ऊंचाई पर चढ़ाने की मुश्किल थी अब वह लौटने के वक़्त खत्म हो गई है और साइकिल बिना पैडल मारे भी बीस किमी की रफ्तार से नीचे उतर रही है।

पल भर के लिए लगा कि मैं हवा पर सवार उड़ा जा रहा हूं लेकिन साथ ही साथ दुर्गम रास्तों की दुश्वारियां भी थी। जरा सा भी नियंत्रण डगमगाता तो जान पर बन आती। इसलिए स्पीड को मैंने साइकिल का ब्रेक लगाकर नियंत्रित किया और कुछ ही मिनटों में वापस गुप्तकाशी और उसके बाद उखीमठ पहुंच गया।

गुप्तकाशी पहुंचकर लगा कि जब आ ही गए हैं तो क्यों ना एक बार मंदिर का भी भ्रमण कर ही लिया जाए। हालांकि चढ़ाई को देखकर मन थोड़ा हिचकिचाया भी लेकिन थोड़ी सी हिम्मत जुटाई तो मंदिर पहुंच गए। मंदिर के बाहर हर मंदिरों की ही तरह धर्म कर्म और पूजा पाठ करने-कराने को लेकर तमाम तरह के पंडित मौजूद थे। जानकारी के लिए बता दूं कि केदारनाथ के पाट खुलते समय भगवान की डोली इस मंदिर की परिक्रमा करके ही आगे बढ़ती है।

गुप्तकाशी के मुख्य मंदिर के अंदर शिवलिंग स्थापित है साथ में ही केदारनाथ की छोटी प्रतिकृति भी विराजित है। मंदिर के सामने एक कुंड बना है जिसमें अलग-अलग दो जल धाराएं गिरती हैं। इस जगह पर बाईं धारा से यमुनोत्री और दाईं धारा से गंगोत्री का जल आता है।

मुख्य मंदिर के साथ में ही अर्धनारीश्वर का मंदिर भी है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव ने पांडवों को यहां अर्धनारीश्वर के रूप में दर्शन दिया था। मैं इस जगह पर तकरीबन दो घंटे तक रुका। शिव के विविध रूपों का दर्शन किया और अपनी साइकिल आगे बढ़ा दिया।

मेरा अगला पड़ाव अब उखीमठ था। उखीमठ, मंदिर का वर्तमान स्वरूप 11वीं शताब्दी का माना जाता है। यह स्थान कई हिन्दू देवी-देवताओं के लिए समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध और बाणासुर के बेटी उषा का विवाह इसी मंदिर में संपन्न हुआ था।

शीतकाल में पंचकेदार में से दो केदार, श्री केदारनाथ और श्री मध्यमहेश्वर की डोली यहीं रखी जाती है और पूजा होती है। राजा मान्धाता की तपस्या से प्रसन्न होकर भोलेनाथ शिव लिंग रूप में यहां स्थापित हुए थे। वह नवम्बर का महीना था इसलिए केदारनाथ और श्री मध्यमहेश्वर का दर्शन संभव था।

मंदिर परिसर में कई छोटे-छोटे अन्य मंदिर बने हैं। मैंने मंदिर के दर्शन किये और वहां से आगे बढ़ा तो पाया कि पीपलकोटी जाने के लिए मेरे सामने दो रास्ते हैं। एक वापस रुद्रप्रयाग से होकर दूसरा चोपता से होकर। मैंने दूसरा विकल्प यानी कि चोपता वाला रास्ता चुना क्योंकि इस जगह के बारे में अभी तक सिर्फ मैंने सुना था, कभी देखना नहीं हो पाया था।

इस चुनाव के साथ इस बात का भी ख्याल आया कि जब चोपता आना ही था तो कुछ दोस्तों को भी अपने साथ ही ले लिया होता। लेकिन जो हुआ अच्छा हुआ, अकेले घूमने से सिर्फ घुमक्कड़ी ही नहीं इंसान जीवन जीना भी साथ-साथ सीखता है। मैं चाहता था कि लोग घूमने के साथ-साथ जीवन जीना भी सीखे। इस लिहाज़ से वह एक सही फैसला था।

संजय शेफर्ड, दिल्ली

संजय शेफर्ड, दिल्ली

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