
ब्रजेश मिश्र, एग्जीक्यूटिव एडिटर द फोटोन न्यूज
lok sabha Election Opinion : अबकी बार चार सौ पार के नारे के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनावी समर में उतरी भारतीय जनता पार्टी को जबरदस्त झटका लगा है। उसका यह चर्चित नारा तो नहीं ही चला, पार्टी 250 का आंकड़ा भी पार करती नहीं दिख रही। देश के कई राज्यों में देर रात तक मतगणना जारी है। ऐसे संकेत हैं कि भाजपा अपने दम पर बहुमत के लिए जरूरी 272 के आंकड़े से दूर रह जाएगी। गनीमत यही है कि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को रूझानों के अनुसार, बहुमत मिलता दिख रहा है। ऐसी परिस्थिति में यदि एनडीए की सरकार बनती है तो भाजपा की नीतीश कुमार के जदयू और चंद्रबाबू नायडू के तेलुगु देशम पार्टी पर निर्भरता रहेगी। सरकार चलाने के लिए दोनों दिग्गजों के साथ पार्टी को संतुलन साधने की कवायद करनी पड़ेगी।
भाजपा को लगे इस जोरदार झटके के बाद अब उन कारणों पर गौर किया जाने लगा है, जिनकी वजह से पार्टी का 400 पार का नारा नाकाम हो गया है। भाजपा को दिल्ली, मध्य प्रदेश, गुजरात, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड, जैसे राज्यों में अच्छा जनसमर्थन मिला। केरल में भी पार्टी का खाता खुलता दिख रहा है, लेकिन यूपी, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जबरदस्त नुकसान हुआ है। इन राज्यों में मोदी का करिश्मा नहीं दोहरा पाने के कारण ही पार्टी बहुमत से दूर रह गई है।
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अगर उन कारणों की बात करें, जो भाजपा के कमजोर प्रदर्शन की वजह माने जा रहे हैं तो इसमें कुछ परंपरागत मतदाताओं का अलग होना भी है। इसके अलावा यूपी में बसपा के कमजोर होने से बने नए समीकरण का लाभ पार्टी को नहीं मिला।
राम मंदिर निर्माण और धारा 370 हटाने जैसे अहम फैसलों से कम से कम यूपी के आम मतदाता प्रभावित नहीं हुए। पार्टी को इन फैसलों से परिणाम में सकारात्मक प्रभाव की उम्मीद थी।
अयोध्या में बने भव्य राम मंदिर में गत 22 जनवरी को धूमधाम से प्राण-पतिष्ठा का कार्यक्रम हुआ। पूरे देश खासकर उत्तर प्रदेश में माहौल राममय दिखा, जिससे भाजपा को उम्मीद जगी कि चुनाव में उसे राम मंदिर का फायदा मिलेगा, लेकिन अब तक के रूझान बता रहे हैं कि राम मंदिर निर्माण से पार्टी को फायदा नहीं पहुंचा। हिंदू मतों का बिखराव हुआ। यहां तक कि अयोध्या जिस फैजाबाद लोकसभा क्षेत्र में पड़ती है, वहां भी भाजपा प्रत्याशी की हार हो गई।
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भाजपा की हार का एक और बड़ा कारण पार्टी का अति-आत्मविश्वास भी रहा। पूरे चुनाव के दौरान सिर्फ मोदी नाम की गूंज थी। पार्टी ऐसा संकेत दे रही थी कि मोदी नाम से ही 400 का आंकड़ा पार कर जाएगी। इसका साइड इफेक्ट यह हुआ कि पार्टी कार्यकर्ता उदासीन हो गए। शुभचिंतक भी फीलगुड के मूड में आ गए। अपने समर्थक मतदाताओं को मतदान केंद्र तक पहुंचाने या दूसरों को पार्टी के पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित करने में भी कई जगह कार्यकर्ताओं ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
भाजपाईयों का यह मुगालता दूसरी बार पार्टी के कमजोर प्रदर्शन का कारण बना। भाजपाईयों ने अटल बिहारी वाजपेयी के समय वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ कुछ इसी तरह का आत्मविश्वास दिखाया था। मतदान के दौरान वोटरों ने पार्टी को जोर का झटका दे दिया था।
इस बार मोदी को जो झटका लगा है, उसमें युवाओं की नाराजगी भी एक कारण है। विपक्ष ने अग्निवीर को बड़ा मुद्दा बना दिया। बेरोजगारी को लेकर भौकाल टाइट किया। कई राज्यों, खासकर यूपी में पेपर लीक का मामले भी बड़ा मुद्दा बना गया। इससे युवाओं के भीतर पनप रहा आक्रोश भाजपा के खिलाफ गया।
इन नतीजों से यह भी पता चला है कि बार-बार व्यक्ति विशेष के नाम पर कोई पार्टी चुनाव नहीं जीत सकती। इस बार मोदी के नाम के भरोसे रही भाजपा ने टिकट वितरण में घोर लापरवाही दिखाई। कई ऐसी सीटों पर वैसे उम्मीदवारों को उतार दिया, जिनके खिलाफ जनता में भारी नाराजगी थी। जातीय समीकरण पर गौर नहीं करना, दलबदलुओं को टिकट देना और सिर्फ मोदी के भरोसे रह जाना पार्टी को महंगा पड़ गया। भाजपा यह आकलन नहीं कर सकी कि हिंदी पट्टी के कई राज्यों में मोदी मैजिक की चमक पहले से फीकी पड़ गई है।
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भाजपा विपक्ष के संविधान और आरक्षण को लेकर शुरू किए गए विमर्श में उलझ गई। विपक्ष ने जिस तरह आरक्षण खत्म करने, संविधान को खतरे में डालने और मोदी के तीसरी बार पीएम बनने पर संविधान को ही खत्म कर देने का डर दिखाया, उसका संदेश-संकेत निचले तबके के वोटरों तक पहुंच गया। भाजपा विपक्ष के प्रचार को सिरे से खारिज करने में कामयाब नहीं हो सकी।
भाजपा की चुनावी हार में मुस्लिमों की नाराजगी और गोलबंदी भी एक बड़ा फैक्टर रही। हालांकि मोदी सरकार की विभिन्न योजनाओं का मुस्लिमों को फायदा मिला। भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों को अपने पाले में करने के निए कई जतन किए। सारी कवायद नाकाम रही। मुस्लिमों ने भाजपा को पूरी तरह नकार कर विपक्ष का साथ दे दिया।
भाजपा की हार को मौसम के प्रकोप से भी जोड़ा जा रहा है। प्रचंड गर्मी में कई जगहों पर शहरी क्षेत्रों में मतदाताओं ने वोट डालने को लेकर उत्साह नहीं दिखाया। मोदी के लिए मतदाओं का जैसा उत्साह 2014 या 2019 के चुनाव में दिखा था, वैसा नजारा इस बार गायब रहा। लिहाजा कई सीटों पर पार्टी को कम अंतर से हार का सामना करना पड़ा।
भाजपा ने अपने अनेक वैसे सांसदों को मैदान में उतार दिया था, जिनको लेकर जनता में भारी नाराजगी थी। स्थानीय स्तर पर कई ऐसे कारक बन गए, जिनकी वजह से लोकसभा का चुनाव लोकल मुद्दों तक सीमित हो गया। कई जगहों पर वोटरों ने इस चुनाव को राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में न देखकर स्थानीय चश्मे से निहारा। भाजपा इस चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दों से जोड़ने में पूरी तरह सफल नहीं हो सकी।
ऊपर से सात चरणों में हुए इस चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अलग-अलग चरण में जिस तरह के अलग-अलग मुद्दे उठाए और विपक्ष के खिलाफ जिस भाषा का इस्तेमाल किया, वह भी भाजपा के लिए बूमरैंग साबित हुआ। विपक्ष जनता तक यह बात पहुंचाने में सफल रहा कि मोदी प्रधानमंत्री पद की गरिमा और प्रतिष्ठा के अनुरूप भाषा का इस्तेमाल नहीं कर रहे।वह सड़क छाप बोली बोल रहे हैं, जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को शोभा नहीं देता। ऐसे व्यक्ति से पिंड छुड़ा लेना जनता के लिए जरूरी है। विपक्ष की इस मुहिम को भी भाजपा प्रभावी तरीके से काट नहीं सकी और नजदीक पहुंचकर भी बहुमत का आंकड़ा छूने से दूर रह गई।
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