पुणे में 26 वर्षीय Ernst and Young (EV) कंपनी की युवा कर्मचारी की दुखद मौत ने सोशल मीडिया पर टॉक्सिक वर्क कल्चर मुद्दे पर बहस छेड़ दी है। बेटी एना सेबेस्टियन पेरायिल (Anna Sebastian Perayil) की मौत के बाद उसकी मां ने भावुक कर देने वाला खत लिखा है, जिसमें उन्होंने कंपनी द्वारा बेटी पर अत्यधिक वर्कलोड देने का आरोप लगाया है।
इस मामले ने सोशल मीडिया पर ऑफिस के टॉक्सिक वर्क कल्चर (Toxic Work Culture) और स्टार्टअप्स/फ्रीलांसर्स के हसल कल्चर (Hustle Culture) जैसे गंभीर मुद्दों को तूल दे दी है। ये दोनों ही टर्म्स के मायने बहुत अलग नहीं हैं, खासकर भारत जैसे वर्कहोलिक कल्चर (Workaholic Culture) वाले देश में इनका तालमेल बहुत ज्यादा है।
दोनों ही स्थितियों में बहुत ज्यादा काम और उसकी वजह से होने वाला स्ट्रेस व स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां कहीं ना कहीं इंसान को मौत के मुंह में धकेल देती है। इससे पहले कि हम इस विषय पर विस्तार से चर्चा करें, एक बार पुणे मामले को जान लें।
क्या है सीए की मौत का मामला?
कोच्चि की चार्टर्ड अकाउंटेंट एना सेबेस्टियन पेरायिल मार्च में पुणे स्थित अर्न्स्ट एंड यंग कंपनी में शामिल हुई थीं। उनकी मां अनीता ऑगस्टीन ने ईवाई इंडिया (EY India) के प्रमुख राजीव मेमानी को खत में लिखा, “अत्यधिक काम के बोझ” के कारण बेटी का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ गया था। एना ने EY में “अथक” काम किया, “कंपनी की मांगों को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ दिया” लेकिन उनके मैनेजर ने कोई दया नहीं दिखाई।” “मेरी बच्ची को इस बात का एहसास नहीं था कि उसे इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी।” (ऑगस्टीन के शब्द)।
एना की मौत के बाद, कंपनी का एक भी शख्स उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने नहीं आया। उनकी इस असंवेदनशीलता की लोगों ने खूब आलोचना की। इसके बाद जब एना की मां का खत सामने आया। इसके बाद कंपनी ने एक स्टेटमेंट जारी कर सहानुभूति जताई।
असुरक्षा की भावना से तनाव झेलने को मजबूर हो रहे लोग
भारत में कई ऑफिसेस हैं जहां टॉक्सिक वर्क कल्चर है, लेकिन कर्मचारी नौकरी जाने के डर से, प्रमोशन के लालच में या फिर सफलता की आस में इस कॉम्पिटिटिव नेचर को चुपचाप झेलते हैं। पर क्या ऐसा वर्क कल्चर आपकी सेहत और सुकून से ज्यादा बढ़कर है? आइए जानें, टॉक्सिक वर्क कल्चर के एक और पहलू ‘हसल कल्चर’ के बारे में, जो हमारे देश में अब आम बात होती जा रही है। हसल कल्चर, टॉक्सिक वर्क कल्चर का ही एक रूप है, बस फर्क है तो वो ये कि हसल कल्चर में इंसान अपनी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए, खुद के कंधे पर इस कदर बोझ ले लेते हैं, कि उनके शरीर और मन दोनों की टूट जाते हैं।
सफल होने की धुन हसल कल्चर के शिकार हो जा रहे लोग
पिछले कुछ सालों में भारत में स्टार्टअप्स में वृद्धि देखी गई है। खुद की कंपनी और बिजनेस शुरू करने वाले ये आंत्रप्रेन्योर, मॉडर्न इंडिया के कई समस्याओं को निपटाने में सक्षम भी हैं। हालांकि, सफलता प्राप्त करने की इस प्रक्रिया में लोग अक्सर ‘हसल कल्चर’ (Hustle Culture) का शिकार हो जाते हैं।
क्या है हसल कल्चर?
हसल कल्चर में लोगों की महत्वाकांक्षा उनकी खुद की देखभाल पर हावी हो जाती है। इसी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए आज की युवा पीढ़ी ‘हसल कल्चर’ को अपना रही है। इसका व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बुरे परिणाम देखने को मिले हैं।
हसल कल्चर सिर्फ किसी स्टार्टअप या आंत्रप्रेन्योर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कई कंपनीज में टॉक्सिक वर्क कल्चर भी लोगों के हसल कल्चर का बड़ा कारण है। मैनेजमेंट, कर्मचारियों को लंबे समय तक काम करने और ओवरटाइम के लिए बढ़ावा देता है। एक्स्ट्रा कमाई के लालच में कर्मचारी भी खुद की परवाह ना करते हुए घंटों काम में लगा रहता है।
हसल कल्चर की शुरुआत कैसे हुई?
1990 के दशक में टेक कंपनीज के जरिए हसल कल्चर विचारधारा का जन्म हुआ, जब सिलिकॉन वैली ने दुनियाभर में पैर पसारना शुरू किया। उनके द्वारा अधिक काम करने वाले कर्मचारी दूसरों के लिए ‘मानक’ बन गए। लोग भले ही कंपनी के संस्थापक, मालिक या उच्च पद पर बैठे लोगों को रोल मॉडल समझें, पर अंदर स्थिति कुछ और ही बयां करती है। इस तरह का वर्किंग एन्वायरनमेंट लोगों के लिए हानिकारक रहा है। इसका एक उदाहरण इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एनआर नारायणमूर्ति का जिन्होंने हाल ही में लॉन्ग वर्क ऑवर्स पर जोर देते हुए बयान दिया था।
क्या कहा था इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एनआर नारायणमूर्ति ने
इस तरह के टॉक्सिक नायक पूजा (Hero Worship) और कर्मचारियों के प्रति असंवेदनशीलता का एक उदाहरण हाल ही में इंफोसिस के पूर्व अध्यक्ष, एनआर नारायणमूर्ति द्वारा दिया गया था, जिन्हें अक्सर शाइनिंग न्यू इंडिया के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। उन्होंने इसपर कहा, “कर्मचारियों को छुट्टियां छोड़ देनी चाहिए और 70 घंटे/सप्ताह काम करना चाहिए”। लोगों ने इसकी काफी निंदा की थी।
कई स्टार्टअप संस्थापक और कर्मचारी एलॉन मस्क, नारायणमूर्ति और स्टीव जॉब्स जैसे लोगों के बहुत बड़े प्रशंसक हैं और वे हसल कल्चर की पूजा करते हैं। ऐसे लोगों के पीछे अंधी दौड़ में, लोग ये भूल जाते हैं कि इन संस्थापकों व अमीर लोगों के पास अपने कर्मचारियों के साथ अमानवीय व्यवहार, उनका शोषण करने और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन अमीर लोगों के पास लम्बे काम के बाद होने वाले स्वास्थ्य प्रभावों से बचने के लिए पैसा है, जो कि कई लोगों के पास नहीं है।
हसल कल्चर के मुख्य फैक्टर
दिन में 16 – 17 घंटे काम करना, बाहर के खाने पर निर्भर रहना, अधूरी नींद लेना, इस हसल कल्चर का मुख्य फैक्टर बन गया है, जिसे कई लोग ‘कूल’ भी समझते हैं। पर क्या इस ‘कूल’ टैग के लिए अपनी जिंदगी को दांव पर लगाना जायज है?
25 वर्षीय आंत्रप्रेन्योर को भारी पड़ा हसल कल्चर
बीते दिनों, ‘सोशल्स’ (Soshals) ऐप के युवा संस्थापक 25 वर्षीय कृतार्थ मित्तल ने सोशल मीडिया पोस्ट में इसी हसल कल्चर पर अपने साथ हुए हश्र का उदाहरण दिया था। मेहनतकश कृतार्थ की ऐप ‘सोशल्स’, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के सोशल मीडिया मैनेजमेंट को सरल बनाने का वादा करती है। ऐप का इस्तेमाल करने वालों ने इसे काफी अच्छा फीडबैक भी दिया है। लेकिन, सराहनाओं और सफलताओं की ये कड़ी ऐसे ही नहीं मिलती। इसके लिए कृतार्थ को भारी कीमत चुकानी पड़ी। उन्होंने खुद को काम के बोझ के तले दबा लिया, अधूरी नींद और खाने-पीने का कोई वक्त नहीं। उन्होंने बिजनेस के नाम पर खुद की सेहत अनदेखी कर दी, जिसका खामियाजा उन्हें अस्पताल में भर्ती होकर चुकाना पड़ गया। अपनी लाइफस्टाइल के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि कैसे ‘हसल कल्चर’ आपको नुकसान पहुंचा सकता है।
रखें ध्यान, स्वास्थ्य ही धन है…
कृतार्थ ने बताया कि वह कॉलेज के दिनों से ही पांच घंटे से कम नींद और अनहेल्दी डाइट लेता रहा है। पढ़ाई और फिर काम का प्रेशर काफी बढ़ गया था। इस दौरान उसे कभी अपनी सेहत पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिला। जबकि उनका शरीर उसे बार-बार ये याद दिलाता रहा कि अब वो 20 साल का वही प्रो-एक्टिव नौजवान नहीं रहा है। उम्र के साथ-साथ सेहत का ज्यादा ध्यान रखना पड़ता है।
इसी प्रकार साल बीते और फिर कृतार्थ का काम भी बढ़ता गया। काम का लोड इतना बढ़ गया कि एक दिन ये अति हो गई, कृतार्थ बहुत तेज सिरदर्द के साथ उठा और फिर उन्हें लगातार उल्टियां होने लगी। बहुत कमजोरी हो जाने के बाद उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट किया गया।
कृतार्थ ने अपनी कहानी बताते हुए फॉलोवर्स को किया सतर्क
उनकी इस हालत की वजह यही हसल कल्चर है, जिसपर कृतार्थ ने अपनी कहानी बताते हुए अपने फॉलोवर्स को सतर्क किया है। उन्होंने अस्पताल के बेड से अपनी फोटो साझा करते हुए मैसेज लिखा ‘हसल कल्चर एक कीमत के साथ आती है- कुछ कीमत आपको तुरंत अदा करनी होती है, कुछ सालों बाद।’ उनका ये सोशल मीडिया पोस्ट कहीं ना कहीं हसल कल्चर के साए में छिपे स्वास्थ्य के खतरों की चेतावनी देती है।
वर्क और पर्सनल लाइफ में बनाएं बैलेंस
हसल कल्चर जिंदगी की वह हकीकत है जो चुनौतियों और सफलता का पीछा कर रहे आज के अधिकांश लोगों का सच बन गया है। पर क्या ये वर्थ-इट है, क्या सफलता को पाने के लिए वक्त के साथ होड़ लगाना लायक भी है। कृतार्थ मित्तल की ये कहानी हमें अपनी सेहत और काम के बीच संतुलन बनाए रखने पर पुनर्विचार करने को कहती है।
अकेलापन, अवसाद जैसे बढ़ रही हैं परेशानियां
जहां एक ओर हसल कल्चर लोगों की च्वॉइस है तो वहीं कुछ लोगों के लिए मजबूरी। इस हसल कल्चर की वजह से अवसाद, अकेलेपन जैसी गंभीर परेशानियां भी देखी गई हैं। आर्थिक रूप से सफल होने के लिए लोग अपनों से दूर शहरों में बसेरा ढूंढते हैं, ताकि अच्छी नौकरी मिले, अच्छे पैसे कमाए और परिवार का नाम रोशन करे। वे भारतीय समाज में फिट होने के लिए घंटों काम कर पैसे कमाने की यह मुश्किल राह चुनते हैं।
अकेलेपन से निपटने के लिए वीकेंड्स पर सॉफ्टवेयर इंजीनियर चलाते हैं रिक्शा
ऐसा ही एक केस बेंगलुरु के एक माइक्रोसॉफ्ट इंजीनियर की है। वेंकटेश गुप्ता नाम के व्यक्ति ने X पर एक पोस्ट साझा की जिसमें उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के एक सीनियर सॉफ्टवेयर इंजीनियर की विचारणीय स्थिति का जिक्र किया है। उन्होंने बताया कि कोरमंगला में माइक्रोसॉफ्ट के एक 35 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर, वीकेंड्स पर अकेलेपन से जूझने के लिए ‘नम्मा यात्री’ चलाते हैं। सुनने में भले ही यह वायरल कंटेंट लगे पर इसके पीछे का कारण आप भी समझते हैं। समाज के उस अनकहे दबाव में इंसान खुद के बलिदान से भी नहीं कतराता है।
पांच गुना बढ़ गए हैं हसल कल्चर से प्रभावित पेशेंट्स: डॉ. सागर मुंदड़ा
फोटोन न्यूज ने मुंबई के जाने-माने मनोचिकित्सक डॉक्टर सागर मुंदड़ा से इस विषय पर बात की। डॉ. सागर के अनुसार लोगों ने हसल कल्चर में ‘More is better’ का कांसेप्ट अपने दिमाग में बिठा लिया है जो कि बिलकुल गलत है। लोगों को लगता है कि वे जितना ज्यादा काम करेंगे उतना खुश रहेंगे, पर सच्चाई तो ये है कि ऐसे लोग प्रोडक्टिव होने के बजाय बर्नआउट हो जाते हैं। हसल कल्चर में लोग बिजी भले हो जाएं पर उनकी कार्य क्षमता पर इसका निगेटिव असर दिखता है।
डॉ सागर ने हसल कल्चर को चिंतनीय बताया है। उन्होंने बताया कि इसकी वजह से लोग अवसाद, अकेलेपन, दिल कि बीमारी जैसी गंभीर समस्याओं से पीड़ित हो रहे हैं। बीते कुछ सालों में ऐसे पेशेंट्स पांच गुना बढ़ गए हैं।
सेल्फ वर्थ को प्रोडक्टिविटी से लिंक करना गलत
प्रतिस्पर्धा वाले आज के जमाने में लोग प्रोडक्टिविटी को सेल्फ-वर्थ से लिंक करते हैं, ये गलत है। ये कहीं ना कहीं बच्चों के दिमाग में बाई डिफॉल्ट स्कूल से, पेरेंट्स से, कोचिंग से डाला जाता है। ये समझने की जरूरत है कि दिन-रात पढ़ाई या काम कर, आप आर्थिक रूप से तो संतुष्ट हो जाएंगे, पर दिल और दिमाग शांत नहीं होगा। पैसे से आपकी बेसिक सिक्योरिटी पूरी हो जाएगी पर सुकून और शांति नहीं खरीद सकते हैं। हां, पैसा जरूरी है पर इसके लिए हसल कल्चर का हिस्सा बनना जायज नहीं है।
हसल कल्चर से होती है ये परेशानियां
हसल कल्चर की वजह से डिप्रेशन, बर्नआउट, नींद की कमी, लाइफस्टाइल डिसऑर्डर, हार्ट इशूज, हाई ब्लड प्रेशर, एडिक्शन, हाई कोलेस्ट्रॉल, डायबिटीज जैसी कई परेशानियां देखने को मिलती हैं। ये सब आजकल 30-40 की उम्र में ही लोगों को हो रही हैं, जबकि ये दिक्कतें 60-70 की उम्र वालों को होती थी ।
हसल कल्चर से कैसे करें डील
डॉ सागर ने अपने अनुभव और स्टडीज के आधार पर बताया कि जो लोग किसी एक काम पर फोकस करते हैं वे ज्यादा खुश रहते हैं। आज की युवा पीढ़ी को ये समझने की जरूरत है कि काम के दौरान अपने लिए थोड़ा सा वक्त निकालें, ब्रेक लें, मल्टी टास्क से बचें, बहुत ज्यादा काम का प्रेशर नहीं लें, दोस्तों के साथ टाइम बिताएं, सेल्फकेयर पर ध्यान दें, ये ही आपको खुशी देगा।
आज की जनरेशन ने जिस हसल कल्चर को ‘कूल’ का टैग दिया है, क्या वो वाकई ‘कूल’ है? कोल्हू के बैल की तरह पिसते हुए काम करना, आखिर सफल होने के लिए कहां तक लायक है। ये सोचने वाली बात है कि हम सक्सेस स्टोरीज बनने के लिए खुद को तो फेल नहीं कर रहे। कृतार्थ मित्तल और एना सेबेस्टियन, भले ही दो अलग वर्क कल्चर के उदाहरण हैं, पर इनका हश्र एक जैसा ही है।