सेंट्रल डेस्क, नई दिल्ली : पहले शिवसेना और अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। महाराष्ट्र की राजनीति से ताल्लुक रखने वाले दो राजनीतिक दलों में एक जैसी टूट हुई। दोनों दलों के मुखिया को छोड़कर पार्टी के विधायक अलग हो गये और सरकार का हिस्सा बन गये।
ऐसे में एक बार फिर देश में लागू दल-बदल विरोधी कानून की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो रहे है। इस कानून में किये गये अपवाद के प्रबंध का लाभ लेकर राजनीतिक दलों के लोग अपने मुनाफे का सौदा कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न है कि संविधान में जोड़ा गया दल-बदल कानून मौजूदा परिस्थितियों में कितना प्रभावी और सार्थक है।
क्या दल-बदल विरोधी कानून है?
कोल्हान विवि के राजनीति शास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर डाॅ. राजेंद्र भारती बताते हैं कि वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ लागू किया गया। संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-बदल विरोधी कानून शामिल है।
इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की कुप्रथा को समाप्त करना था । 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में ‘आया राम गया राम’ की राजनीति देश में काफी प्रचलित हो चली थी।
अक्तूबर 1967 को हरियाणा के विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल-बदलकर इस मुद्दे को राजनीतिक चर्चा के केंद्र में ला दिया।
दल-बदल के मामले में न्यायालय ने बार-बार स्पष्ट की स्थिति
वर्ष 1993 में Kihoto Hollohan vs Zachillhu के मामले में उच्चतम न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा था कि विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा।
विधानसभा अध्यक्ष के आदेश की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। न्यायालय ने माना कि दसवीं अनुसूची के प्रावधान संसद और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचित सदस्यों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं करते हैं।
यह संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत किसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन भी नहीं करते। हाल ही में महाराष्ट्र के मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बगावत करने वाले विधायकों के गुट के पक्ष में फैसला सुनाया। पार्टी का चुनाव चिन्ह भी बगावत करने वाले गुट को दे दिया।
कुछ ऐसा है कानूनी प्रावधान
डॉ. राजेंद्र भारती बताते हैं कि दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदि:
कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।
एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
इन्हें प्राप्त है अयोग्य घोषित करने की शक्ति
कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है।यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित कोई शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है।
दल-बदल विरोधी कानून के अपवाद, जिसका मौजूदा वक्त में लिया जा रहा फायदा
कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा। मौजूदा राजनीतिक दौर में इस अपवाद का जमकर फायदा लिया जा रहा है।
दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों।
ऐसे में न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर। इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट प्राप्त है। वर्तमान में छोटी-छोटी पार्टियों के अधिकांश विधायक एक तरफ होकर पार्टी के नाम से ही अपना गुट बना ले रहे। वह सरकार का हिस्सा बन रहे और उनपर यह कानूनी लागू नहीं हो पा रहा।
आखिर क्यों हो रही इस कानून पर बहस
पक्ष में तर्क
एबीएम कॉलेज के प्राचार्य डॉ. विजय कुमार पीयूष बताते हैं कि दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
1985 से पूर्व कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर सरकार बना लेते थे जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी। ऐसी स्थिति बहुत हद तक कमी आयी है।
विपक्ष में तर्क
काशी विद्यापीठ के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अविनाश कुमार सिंह कहते हैं कि लोकतंत्र में संवाद की संस्कृति का अत्यंत महत्त्व है, परंतु दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग किंतु महत्त्वपूर्ण विचारों को नहीं सुना जाता है।
अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि इसके कारण अंतर-दलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है। इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जनप्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं।
इन समितियों की ओर से की गयी सिफारिश
दिनेश गोस्वामी समिति : वर्ष 1990 में चुनावी सुधारों को लेकर गठित दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा था कि दल-बदल कानून के तहत प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा लिया जाना चाहिये।संबंधित सदन के मनोनीत सदस्यों को उस स्थिति में अयोग्य ठहराया जाना चाहिये यदि वे किसी भी समय किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं।
विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट: वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव से पूर्व दो या दो से अधिक पार्टियाँ यदि गठबंधन कर चुनाव लड़ती हैं तो दल-बदल विरोधी प्रावधानों में उस गठबंधन को ही एक पार्टी के तौर पर माना जाए।राजनीतिक दलों को व्हिप (Whip) केवल तभी जारी करनी चाहिये, जब सरकार की स्थिरता पर खतरा हो।
चुनाव आयोग का मत: इस संबंध में चुनाव आयोग का मानना है कि उसकी स्वयं की भूमिका व्यापक होनी चाहिये। अतः दसवीं अनुसूची के तहत आयोग के बाध्यकारी सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने की व्यवस्था की जानी चाहिये।