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“अपने हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला” जिसने कभी छुआ नहीं शराब, उनकी ‘मधुशाला’ में हर तबका हुआ फना

हरिवंश राय बच्चन ने 1929 में अपनी पहली किताब "तेरा हार" लिखी थी, लेकिन उन्हें शोहरत 1935 में मिली जब उनकी कविता "मधुशाला" छपी। मधुशाला की पंक्तियों के लोग दीवाने हो गए।

by Priya Shandilya
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‘मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम अपने हाथों से आज पिलाऊंगा प्याला…’

हरिवंश राय बच्चन की इन खूबसूरत पंक्तियों ने हर उम्र और हर जेनरेशन के पाठकों को मंत्रमुग्ध किया है। आखिर ऐसी क्या खास बात है उनकी “मधुशाला’ में जो हर कोई यहां खिंचा चला आता है। आइये जाने हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को और उनकी जिंदगी के कुछ अनसुने किस्सों को।

अंग्रेजी के प्रोफेसर से विदेश मंत्रालय में हिंदी के सलाहकार तक

हरिवंश राय बच्चन इलाहाबाद विश्विद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। इलाहाबाद छोड़ने के बाद उन्हें दिल्ली में विदेश मंत्रालय में हिंदी सलाहकार के तौर पर काम करने का अवसर मिला। उनका नाम राज्यसभा के लिए भी नामित किया गया था। 1976 में उन्हें पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया।

1929 में आई थी हरिवंश जी की पहली किताब

हरिवंश राय बच्चन ने 1929 में अपनी पहली किताब “तेरा हार” लिखी थी, लेकिन उन्हें शोहरत 1935 में मिली जब उनकी कविता “मधुशाला” छपी। मधुशाला की पंक्तियों के लोग दीवाने हो गए। हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला उनकी काव्य प्रतिभा को खुलकर बयां करती है। इसकी ख्याति सिर्फ हिंदी पाठकों तक ही सीमित नहीं है। दुनियाभर में ‘मधुशाला’ काफी प्रसिद्ध है। इस कविता की कुछ पंक्तियां जीवन के रहस्य को बहुत ही सरल भाषा में लोगों के सामने पेश करती है। उन्होंने 50 से अधिक किताबें मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, दो चट्टानें, आरती और अंगारे, खादी के फूल आदि लिखी हैं। 1968 में हरिवंश राय बच्चन को उनकी पुस्तक ‘दो चट्टानें’ के लिए साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा गया।

शराब नहीं पीते थे हरिवंश राय बच्चन

हरिवंश जी ने साल 1935 में, जब वे महज 28 वर्ष के थे, तब ये कविता लिखी थी। उन्होंने ‘मधुशाला’ का सहारा लेकर, जीवन की जटिलताओं को समझने की कोशिश की। उनकी कविता में मधु, मदिरा या हाला (शराब), साकी, प्याला और मधुशाला या मदिरालय कई बार आते हैं। दिलचस्प बात ये है कि हरिवंश राय बच्चन ने कभी शराब नहीं पी थी। बिना शराब को छुए ही उन्होंने 135 चौपाइयां लिखीं, जिनका अंत ‘मधुशाला’ से होता था।

नीचे पढ़ें हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला कविता हिंदी में:

मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस
में है वह भोलाभाला,
अलग­ अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूँ –
‘राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला

उर का छाला…
लाल सुरा की धार लपट-सी
कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको
कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का
विगत स्मृतियाँ साकी हैं;
पीड़ा में आनंद जिसे हो,
आए मेरी मधुशाला

अंगूर लताएँ …
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला

मस्जिद-मन्दिर…
मुसलमान और हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!

साकी बालाएँ…
यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकी बालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।

ठोकर खाकर…
ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।

बहलाता प्याला…
यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।

महल ढहे…
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!

सुखदस्मृति है…
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखद स्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं कवि का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।

मेरे साकी में…
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।

सदा उठाया है…
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकी बाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।

तर्पण-अर्पण करना…
पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़कर के मधुशाला।

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