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शहरनामा: तीसरी आंख नहीं, तीसरा आदमी

by Birendra Ojha
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डिजिटल युग आया तो मन को तसल्ली हुई थी कि वह सबकुछ महाभारत के संजय की तरह देख लेगा, लेकिन ताजा मामला आया है कि अब उस पर भी भरोसा नहीं रहा। तय हुआ कि तीसरा आदमी देखेगा कि जांच करने वाला क्या-क्या कर रहा है। दरअसल, निरीह से दिखने वाले वाहन चालकों पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ने वाले वर्दीधारियों ने जब हद कर दी, तो तीसरे आदमी का पहरा लगाने पर चिंतन किया गया। वास्तव में वर्दीधारी ऐसी-ऐसी वजहों से आपकी गाड़ी रोक देते हैं कि आप सोच भी नहीं सकते। यदि आपकी गाड़ी का नंबर अधिक पुराना हो गया है, तो इस शक पर रोक देते हैं कि कहीं यह चोरी का तो नहीं है। सब-कुछ ठीक रहा, तो पॉल्यूशन और इंश्योरेंस के पेपर दिखाइए। यदि इन्होंने देख लिया कि बाइक पर बीमार महिला बैठी है, तो डॉक्टर की फीस ले लेंगे।

नेताजी ने वहां भी सुना दी कविता

अपने नेताजी कुछ दिनों पहले गांधी की धरती पर थे। वहां भी उन्होंने वही कविता सुना दी, जो यहां के लोग कई-कई बार सुन चुके हैं। पता नहीं, वहां उस कविता को कितनी दाद मिली, लेकिन यहां के लोग उनके कवि-हृदय व्यक्तित्व को देख तरह-तरह की चर्चा करने लगे। हद तो तब हो गई, जब दूसरे दिन से ही नेताजी की लानत-मलामत करने लगे कि उन्होंने एक राष्ट्रवादी संगठन के बारे में ऊल-जलूल बात कैसे कह दी। हालांकि, बिना कोई खंडन या माफीनामा आए, खुद ही शांत हो गए कि पता नहीं नेताजी कब उनके संगठन में शामिल हो जाएं। ऐसे में चुप रहना ही अच्छा है। वैसे भी उनके बारे में एक बात मशहूर है कि वे कपड़े की तरह निष्ठा बदल लेते हैं। हालिया विधानसभा चुनाव में लोग उनके कई रूप देख चुके थे। वैसे अभी उनकी निष्ठा पर कोई शक नहीं कर सकता।

गर्मी आई, चमक बढ़ी

कहते हैं कि राजनीति में सूखा आए या बाढ़, नेताजी के दोनों हाथ में लड्डू रहते हैं। इसी तरह अपने यहां भी कुछ लोगों की चमक गर्मी आते ही बढ़ जाती है। बड़े-बड़े नाम लिखे हुए टैंकर यानी पानी की टंकी गली-मोहल्लों में दौड़ने लगती है। कुछ लोग दूसरों से टंकी मंगाने के लिए दिन-रात परेशान रहते हैं। हर साल गर्मी में यही उनका काम रहता है, बाकी के आठ महीने बयानबाजी के भरोसे रहते हैं। गर्मी आते ही उनके मोहल्ले में हलक सूखने लगते हैं। हंडी-डेगची लेकर महिलाओं को जमा कर लेते हैं और टंकी आने वाली होती है, तो लाइव कमेंट्री शुरू कर देते हैं। इसका फायदा होता है कि पूरी गर्मी छपते-दिखते रहते हैं। उन्होंने खुद ही उपाधि भी ले रखी है। आप खुद समझदार हैं, जान गए होंगे। मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं, जिन्हें पानी के बदले वोट नहीं मिला।

नाम में क्या रखा है

नाम में क्या रखा है… को कई लोग नेकी कर दरिया में डाल… जैसा बताते हैं, लेकिन नाम के लिए परेशान होने वालों की भी कमी नहीं है। कुछ लोग एक दर्जन केला और एक किलो सेब बांटकर इस तरह फोटो छपवाते हैं, जैसे उन्होंने उस निरीह को जीवन भर का टॉनिक दे दिया। अब नया मामला है, पत्थर पर खोदे या उकेरे गए नाम को लेकर है। इसके लिए पूरी सेना उतर गई कि अधिकारियों ने उनके नेताजी के नाम का पत्थर क्यों नहीं लगाया, जिसके लिए नेताजी ने दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत की थी। गनीमत यह है कि नेताजी ने अपने वाले पत्थरों से सड़क या पेवर्स ब्लॉक नहीं बिछाए थे, वरना सोचिए क्या होता। गली-गली में बोर्ड-होर्डिंग कई जगह आज भी चमचमा रहे हैं, लेकिन बात पत्थर पर उकेरी गई लकीर की है। भला नेताजी चुप कैसे रहेंगे, दूसरा क्रेडिट कैसे लेगा।

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