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राजेंद्र प्रसाद की जयंती आज, जानें देशरत्न राजेंद्र बाबू से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य

by Rakesh Pandey
राजेंद्र प्रसाद की जयंती आज
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स्पेशल डेस्क: देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से जुड़े कई प्रसंग ऐसे हैं, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। डॉ राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। वह बचपन से ही होनहार रहे। भारत के इस लाल का पूरा जीवन एक खुली किताब है। राजेंद्र बाबू अपने दौर के उन चुनिंदा नेताओं में थे, जिनका व्यक्तित्व तत्कालीन भारत की आत्मा को प्रकट करता था।

गांव में पत्नी के नाम पर राजकीय औषधालय का किया था स्थापना
राजेंद्र बाबू के गांव में उनकी धर्मपत्नी राजवंशी देवी के नाम पर एक राजकीय औषधालय की स्थापना की गई थी, जो आज खंडहर में तब्दील हो गया है। हालांकि, देशरत्न की गरिमा और उनके धरोहर को बरक़रार रखने की नीयत से केंद्र सरकार ने जीरादेई स्थित डॉ राजेंद्र प्रसाद के पैतृक मकान को पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया है। जिस कारण देशरत्न का पैतृक मकान उनकी स्मृति के रूप में बच गया है। जिसे सरकार ने पर्यटन स्थल घोषित कर रखा है।

जीवन का आखिरी पल सदाकत आश्रम में गुजारा
राजेंद्र बाबू जैसा सादगी पसंद नेता होना किसी-किसी के लिए ही संभव हो सका। उन्होंने अपने जीवन के आखिरी पल पटना के सदाकत आश्रम में गुजारे। उनका जन्म तीन दिसंबर 1884 को पैतृक गांव जीरादेई में पिता महादेव सहाय और माता कमलेश्वरी देवी के घर हुआ था। 28 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में उनका निधन हो गया।

यहां उनकी चप्पल, कुर्सी और पलंग आज भी ठीक वैसे ही लगा हुआ है, जिसे देखकर लगता है कि राजेंद्र बाबू कहीं से घूमते-फिरते आएंगे और बैठ जाएंगे। गंगा के किनारे स्थित यह जगह गांधीवादियों के लिए आस्था का बड़ा केंद्र हैं। राजेंद्र बाबू खुद भी गांधी जी को खूब सम्मान देते थे। उनका जीवन गांधीजी से काफी हद तक प्रभावित रहा।

राजेंद्र बाबू को थी दमा की बीमारी
बताया जाता है कि राजेंद्र बाबू को दमा की बीमारी थी। राष्ट्रपति पद के लिए कार्यकाल पूरा करने के बाद जब वे पटना के सदाकत आश्रम में आकर रहने लगे तो उनकी बीमारी बढ़ती गई। उम्र के आखिरी पड़ाव में देश के पहले राष्ट्रपति को इस बीमारी के कारण काफी तकलीफ झेलनी पड़ी। कई लोग दावा करते हैं कि तत्कालीन सरकार ने उनकी सेहत पर ठीक तरीके से ध्यान नहीं दिया। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से कई मसलों पर उनके मतभेदों की चर्चा अब अधिक खुलकर होती है। कई लोग तो आखिरी वक्त में राजेंद्र बाबू की अनदेखी के लिए नेहरू को ही जिम्मेदार ठहराते हैं।

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