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गणेश उत्सव की परंपरा: इतिहास, महत्व और मान्यता

by Rakesh Pandey
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गणपति अर्थवर्थ शीर्ष मंत्र के अनुसार, श्री गणपति जी वैदिक काल के देवता के रूप में प्रसिद्ध हैI सनातन परम्परा में पांच संप्रदाय प्रमुख रूप में विभिन्न आचार्यां द्वारा आद्त हुए- वे हैं शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर एवं गाणपत्य। इन पांच परम्पराओं को लेकर पुराणों का भी विभाजन किया गया है। शैव सम्प्रदाय में शिव पुराण, लिंग पुराण एवं स्कन्द पुराण, वैष्णव परम्परा में भागवत एवं विष्णु पुराण, शाक्त परम्परा में श्रीमद् देवी भागवत, महाभागवत एवं कालिका पुराण, सौर परम्परा में सौर पुराण एवं गाणपत्य परम्परा में गणेश पुराण, गणेश भागवत एवं मुद्गल पुराण नाम से केवल तीन पुराण उपलब्ध हैं।

गणेश के नौ अवतार का वर्णन मुद्गल पुराण में मिलता है- वक्रतुण्ड, एकदन्त, महोदर, गजानन, लम्बोदर विकट, विघ्नराज, धूम्र वर्ण एवं योग। गणेश पुराण के अनुसार गणेश प्रत्येक युग में अवतार लेकर धर्म की संस्थापना करते आये हैं। सतयुग में गणेश ने कश्यप और आदिति से जन्म लेकर महोत्कट विनायक नाम से प्रसिद्ध होकर देवतान्तक और नरान्तक नामक राक्षसों का अन्त करके धर्म की स्थापना की थी।

त्रेतायुग में श्रीगणेश ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन जन्म लेकर “गणेश” नाम से प्रसिद्ध हो कर सिंधु नामक दैत्य का वध किया था। ब्रह्मदेव की दो कन्याओं रिद्धि एवं सिद्धि के साथ उनका विवाह हुआ था। द्वापरयुग में शिव-पार्वती से जन्म लेकर सिदुरासुर नाम के दैत्य का वध किया था। सतयुग में उनका वाहन सिहं, त्रेतायुग में मयूर एवं द्वापर में मूषक था। कलियुग में उनका वर्ण धूम वर्ण होगा एवं वाहन घोटक होगा। वे दुष्टों का संहार करेंगे।

गाणपत्य संप्रदाय

उक्त संप्रदाय में छः भेद हैं।

1. महागणपति
2. हरिद्रा गणपति
3. उच्छिष्ट गणपति
4. नवनीत गणपति
5. स्वर्ण गणपति
6. सन्तान गणपति

पूजापद्धति एवं उपासना भेद से ये गणपति पृथक-पृथक हैं। भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों में इनके भव्य मन्दिर स्थित हैं। महागणपति सम्प्रदाय समस्त देव-देवताओं एवं ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण गणपति को मानता है। हरिद्रा गणपति सम्प्रदाय में गणपति को ब्रह्माणस्पति मानते हैं एवं मूर्ति, यज्ञोपवीत आदि पीतवर्ण का धारण कराते हैं। वाममार्गी लोग उच्छिष्ट गणपति की उपासना करते हैं। नवनीत, स्वर्ण एवं सन्तान गणपति सम्प्रदाय के लोग वैदिक रीति से पूजा एवं अर्चना करते हैं।

व्रत परम्परा एवं विधि

भाद्रमास शुल्क चतुर्थी तिथि के प्रातः काल से पूजा की जाती है। व्रत से पूर्व सकंल्प लिया जाता हैI इसके पश्चात स्वस्ति वाचन, गणपति पूजन, कलशार्चनर्च का कर्मकर्म काण्ड किया जाता है। गणेश की प्रतिमा सोने, चांदी, ताम्बे, मिट्टी या गोबर से निर्मित की जाती है। अव प्रायः मृण्मय प्रतिमा की पूजा होती है एवं पूजन के पश्चात विसर्जित कर दी जाती है। वैदिक रीति से आह्वान, आसन, पाद्य आदि से षोडशोपचार की पूजन का विधान है। यहां गणेश की स्थायी प्रतिमा है, वहां विशेष पूजन होता है। समस्त कष्ट दूर करने हेतु एवं मध्याह्न में मनोकामना प्राप्ति करने हेतु यह व्रत किया जाता है। बालि के बन्धन से छूटने के लिए रावण ने, सीता को खोजने हेतु हनुमान ने, राज्य पाने हेतु युधिष्ठिर ने यह गणेश व्रत किया था। कृत्यरत्नावली के अनुसार गणेश जी का जन्म भाद्र शुक्ल चतुर्थी में हुआ था। अतः व्रत के लिए मध्याह्न व्यापिनी तिथि ली जाती है। व्रत के अन्त में भगवान को मोदक अर्पण करके प्रसाद वितरण किया जाता है।

विघ्नानि नाशमायन्तु सर्वाणि सरु नायक।
कार्य मे सिद्धि मायन्तु पूजितेत्वयिधातरि।

श्री गणेश जन्म कथा

किन्हीं कारणवश मां पार्वती ने शंकर से रुष्ट होकर तपस्या करने हेतु अन्यत्र जाकर एक गुफा में निवास किया। पुन: शिव को प्रसन्न करने का ही उनका उद्देश्य था। उनकी तपस्या में विघ्न न हो और कोई अन्य पुरूष गुफा में प्रवेश न कर जाय अतः उन्होंने अपने शरीर के उबटन से एक प्रतिमा बना कर जीवन दान दिया और उन्हें पुत्र के रूप में स्वीकार किया। पुत्र ने गुफा द्वार की रक्षा की। शंकर जी पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर जब उनसे मिलने गये तब द्धारपाल दायित्व को निभाने वाले पुत्र ने शिव के स्वरूप को न जान कर उन्हें प्रवेश नहीं दिया। अतः दोनों में युद्ध छिड़ गया, जिससे पुत्र की मृत्यु हुई। पार्वती इस बात से अत्यन्त अप्रसन्न हुईं। शंकर जी ने उन्हें प्रसन्न करने हेतु जब जीवन दान देना चाहा तब सिर का पता नहीं चला। अतः गज शिशु का सिर लाकर उसे धड से संयोग कर न केवल जीवन दान दिया बल्कि अपने गण का प्रमुख बनायाI तब से उनका नाम गणनाथ पड़ा। उनका प्रिय भोजन मोदक, कपित्थ एवं जामुन है। इस प्रकरण पर एक श्लोक प्रसिद्ध है।

गजाननं भतू गणादि सेवितं कपि त्थजम्बूफललचारुभक्षणम।
उमासुतं शोकविवाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्।

पुराणों के अन्य प्रसगं में गणेश के गजाशिर होने की भिन्न कथा है। गणेश जन्म उत्सव के समय समस्त देवता उनके दर्शनार्थ आये थे, जिनमें शनि देव भी सम्मिलित थे। शनि की दृष्टि पड़ने से बालक का अहित हो जाएगा यह समझ कर शनि ने सिर उठाकर न देखने से पार्वती के मन में कष्ट हुआ कि शनिदेव का आशीर्वाद उनके बालक को नहीं मिला। तब पार्वती के आग्रह पर जब शनि ने गणपति का दर्शन किया एवं दर्शन मात्र से गणपति का सिर उनकी कुदृष्टि से अलग हो गया, तब सिर न मिलने पर महादेव ने हाथी का सिर अपने गणों से मंगवा कर संयोग पूर्वक जीवन दान दिया।

परशुराम की एक कथा गणेश के एक दन्त होने से सम्बधित है। एक बार शिव पार्वती के दर्शन हेतु शिवजी के परम शिष्य परशुराम कैलाश पहुंचे I तब शिव पार्वती के साथ विश्राम में थे, गणपति ने परशुराम को अन्दर जाने हेतु अनुमति न देने से दोनों का भयकंर युद्ध हुआ एवं परशुराम के प्रहार से गणपति का एक दांत कट गया। गणपति ने अपने पिता द्वारा परशुराम को प्रदत्त परशुराम का अपमान न हो, इस कारण उन्होंने अपने एक दांत कटवाने का सौभाग्य को स्वीकार किया। तब से वे एकदन्त नाम से प्रसिद्ध हो गये।

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गणेश उत्सव सांप्रतिक सन्दर्भ एवं प्रासंगिकता

किसी भी देवता के पूजन, व्रतोपनयन या विवाह आदि कार्यक्रम में विघ्न दूर करने हेतु सर्वप्रथम गणेश जी की अग्रपूजा होती है, तब अन्य कर्मकर्मकाण्ड होते हैं। गणेश के प्रतीक के रूप में कलश की स्थापना एवं कहीं पर सुपारी को भी प्रतीक माना जाता है। स्वतन्त्रता आन्दोलन को तूल देने के लिए देशवासियों में एकता लाने के लिए विशेष रूप में महाराष्ट्र में बालगंगाधर तिलक और प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानियों ने गणेश पूजन के माध्यम से जनसाधारण को एकत्रित किया। आज भी भारत के अन्य राज्य की तुलना में महाराष्ट्र में गणेश पूजन अत्यन्त हर्षोल्लास के साथ धूम-धाम से पालित होता है।

विद्यालयों में आज के दिन विग्रह की स्थापना करके बुद्धि दाता गणेश की उपासना की जाती है। विद्यार्थियों के लिए भी यह एक महान पर्व है। आदि शंकराचार्य अन्य संस्कृत कवि एवं क्षेत्रीय भाषाओं के कवियों ने गणेशजी के अनेक स्तोत्र एवं स्तुतिओं की रचना की।

शुल्क चतुर्थी के अतिरिक्त अन्य तिथियों में गणेश पूजन का विधान है। यथा फाल्गुनशुक्लचतर्दु शी में घंटाकर्ण की पूजा होती है। राजपुताना में गणेश चतुर्थी को दोपहरिया गणेश भी कहते हैं, कारण सुबह से लेकर दोपहर तक पूजन का विधान है। दक्षिण भारत के मन्दिरों से गणेश जी की झाँकी निकलती है।

अष्ट विनायक मन्दिरों में से मुम्बई का सिद्धि विनायक, काशी का ढुण्डीवि नायक, उज्जैन का चिन्तामणि गणपति आदि स्थानीय देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं। बालगंगाधर तिलक ने 1893 में महाराष्ट्र में सार्वजनिक रूप में गणेश उत्सव मनाया, जिससे एकता, सांस्कतिक चेतना एवं गुलामी से आजाद होने का मार्ग दिखाया। आज भी गणेश उत्सव भारतवर्ष में एक गौरवशाली परम्परा के रूप में प्रसिद्ध है।

पुरी का जगन्नाथ मन्दिर यद्यपि प्रमुख रूप में वैषणव सम्प्रदाय का है, परन्तु वहां पचंदेवों की उपासना की जाती है। महाराष्ट्र से दर्शन हेतु आगत भक्त शिरोमणि विनायक भट्ट की इच्छा पूरण करने हेतु भगवान् जगन्नाथ ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन गजानन वेश में स्नानमण्डप पर अगणित भक्तों को दर्शन देते हैं।

गणपति के शरीर से भी कुछ प्रेरणा मिलती है। उनका कान सूप जैसे बड़े हैं। यह प्रेरणा देती है कि सूप जैसे तूष आदि अपदार्थ को फेंक कर पदार्थ को अपने अन्दर रखता है, उस प्रकार संसार के असार तत्व को फेंक कर सारतत्वों को अन्दर लेना चाहिए।

उनके आंखें छोटी हैं जो सूक्ष्म दृष्टि से तत्व की विवेचना करने हेतु प्रेरणा देते हैं। उनको मोदक के साथ कपित्थ एवं जामुन भी अत्यन्त प्रिय है। यह प्रेरणा देती है कि मधुजनित रोग को दूर करने हेतु कैथ और जामुन भी अत्यन्त प्रिय हैं।

यह प्रेरणा देती है कि मधुजनित रोग को दरू करने हेतु कैथ और जामुन जैसे रोग निवारक फलों का सेवन करना चाहिए। इस प्रकार गणेशोत्सव न केवल धार्मिक उत्सव है बल्कि उसके अन्तर्गत भारतीय दर्शन, संस्कृति, परम्परा एवं ऐतिह्य प्रतिबिंबित हैं।

प्रो. गंगाधर पण्डा
कुलपति
नेताजी सुभाष सुभाष विश्वविद्यालय, जमशेदपुर
पूर्व कुलपति
कोल्हान विश्वविद्यालय, चाईबासा
श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी।

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