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रिक्शावाला
सोचा कुछ लिखूं
उनके लिए
जो रिक्शा चलाते हुए
सिर्फ पैसे देखते है
भार नहीं।
ढ़ोते है साहबों को
गालियां भी सुनते हैं साहबों की
बस सपने नहीं देख सकते
उनके जैसा।
रोटियां तो मिलती हैं
रूखी सूखी सी
रहते है झुग्गियों में
और सोते हैं बेफिक्र
ढ़ोते है मखमल वालों को
पर पहनते है चिथडन – उतारन।
पेट का क्या है
वो तो आदतन पिचक गया है
रहने का क्या
रिक्शा ही उनका महल है
कड़कती ठंड हो
या चिलचिलाती धूप
बरसते बादल हो
या तूफ़ानी मौसम
हर हाल वो मारता रहता पैडल
पहुंचाता सबको उसकी मंजिल तक
खुद जिसका न मंजिल है न सफर।
पर फ़िर
मैंने सोचा कि
उनके लिए क्यूं लिखूं ?
वो तो पढ़ते ही नहीं है
अनपढ़ हैं
गवार ही तो है
सब के सब!
निखिल सिंह, प्रयागराज
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