जमशेदपुर : जमशेदपुर स्थित संस्था ‘सृजन संवाद’ पिछले 14 वर्षों से साहित्य, कला, सिनेमा एवं समसामयिक मुद्दों पर चर्चा और परिचर्चा का मंच रही है। इस संस्था की प्रत्येक विचार गोष्ठी साहित्यिक प्रतिबद्धता का निर्वहन करती आई है। इसी कड़ी में, वर्तमान समय में जब विश्व के विभिन्न हिस्सों में युद्ध जैसी परिस्थितियाँ बन रही हैं या बन चुकी हैं, संस्था ने एक बार फिर अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी निभाते हुए युद्ध-विरोधी साहित्य और कला की भूमिका पर विचार करना प्रारंभ किया है। संस्था द्वारा यह विषय ‘युद्ध के विरुद्ध साहित्य और कला की भूमिका’ को लेकर एक श्रृंखला के रूप में गोष्ठियों के आयोजन द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है। इसी क्रम में, 151वां ‘सृजन संवाद’ शनिवार शाम 6 बजे आयोजित किया गया, जिसका विषय था—‘युद्ध के विरुद्ध : कविता’।
इस गोष्ठी में देश के विभिन्न हिस्सों से जाने-माने कवि, शिक्षाविद, कलाकार तथा श्रोता स्ट्रीमयार्ड और फ़ेसबुक लाइव के माध्यम से जुड़े थे। जमशेदपुर से डॉ. विजय शर्मा (सिनेमा विशेषज्ञ), डॉ. क्षमा त्रिपाठी (साहित्यकार), रांची से वैभवमणि त्रिपाठी, ग़ज़लकार व कहानीकार अजय महताब, डॉ. आभा विश्वकर्मा (शिक्षाविद एवं साहित्यकार), केरल से शांति नायर (शिक्षाविद एवं साहित्यकार), मैसूर से दीपा मिश्रा (शिक्षाविद एवं साहित्यकार), बेंगलुरु से कवि परमानंद, तथा पाकुड़ से डॉ. अंशु तिवारी ने सहभागिता की।
गणमान्य अतिथियों ने विभिन्न भाषाओं में रचित तथा स्वयं की रचनाओं के माध्यम से युद्ध की विभीषिका और युद्ध-पीड़ित मानसिकता को अभिव्यक्त करती कविताओं का पाठ किया।
इस संस्था की व्यवस्थापक डॉ. विजय शर्मा ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि साहित्य जितना प्राचीन और शाश्वत है, युद्ध भी उतना ही पुराना अनुभव है। रामायण और महाभारत से लेकर प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध, भारत-पाक और भारत-चीन युद्धों तक, इतिहास में कई बार युद्ध आत्मरक्षा, आत्मगौरव और सम्मान के लिए आवश्यक हो जाता है। फिर भी, हर परिस्थिति में युद्ध विनाश ही लाता है। साहित्य, प्रत्यक्ष न सही, पर अप्रत्यक्ष रूप से युद्ध को रोकने में सहायक सिद्ध होता है। यह व्यक्ति के भीतर की कटुता का शमन करता है और सह-अस्तित्व की भावना को जन्म देता है।
साहित्य और कला का प्रभाव जल की उन उर्मियों (तरंगों) के समान है, जो लगातार प्रवाहित होती रहती हैं और यही तरंगें मानवता के प्रति आशा को बनाए रखती हैं। इतिहास में अनेक ऐसे कवि हुए हैं – विशेष रूप से वे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिक के रूप में भाग लिया था- जिन्होंने युद्ध के मानसिक संघर्ष को कविता और कला के माध्यम से अभिव्यक्त किया। उन्होंने युद्ध की त्रुटियों, शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं, पारिवारिक विघटन तथा भावनात्मक क्षति को शब्दों में पिरोया, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ युद्ध के विनाश से सबक ले सकें। इस प्रकार साहित्य की प्रासंगिकता और उसकी शांति-स्थापना में भूमिका आज भी उतनी ही आवश्यक है, जितनी अतीत में रही है।
कवि परमानंद ने कुशलतापूर्वक मंच संचालन करते हुए अपनी कविता ‘अबूझ माड़’ तथा समकालीन कवि रोहित ठाकुर की कविता ‘युद्ध के ख़िलाफ़ कविताएँ’ का पाठ किया। साथ-ही-साथ उन्होंने कहा कि मनुष्य की प्रवृति ही आक्रामक है, ज़्यादा पाने की लालसा जब तक मनुष्य में बनी रहेगी तब तक युद्ध होते रहेंगे। डॉ. आभा विश्वकर्मा ने स्मृति मनचंदा की कविताओं ‘वीरगति’, ‘बिगुल’, ‘युद्धघोष’, ‘जब युद्ध ख़त्म होगा’ और ‘तीसरे विश्वयुद्ध की प्रतीक्षा में’ का पाठ किया। जाने-माने ग़ज़लकार एवं कहानीकार अजय महताब ने इजरायली कवि यहूदा अमीचाई की कविता ‘बम का व्यास’ (जिसका अनुवाद अशोक पांडेय ने किया है) तथा इसी कवि की एक अन्य कविता ‘मेरे वालिद’ (जिसका अनुवाद सुरेश सलाई ने किया है) का पाठ किया। प्रो. शांति नायर, जो शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षाविद एवं कवयित्री हैं, ने अपनी कविताएँ – ‘युद्ध पर प्रश्नचिह्न’, ‘युद्ध समाप्त हो जाता है’ और ‘हिलना’ का पाठ किया।
इन कविताओं में युद्ध की भीषणता और वीभत्सता का प्रभावशाली चित्रण है। इन रचनाओं में यह दिखाया गया है कि किस प्रकार युद्ध शांति के स्थान पर भय को जन्म देता है, और जैसे-जैसे यह भय बढ़ता है, वह राज्य-विस्तार की आकांक्षा के माध्यम से अनेक सभ्यताओं और संस्कृतियों को निगल जाता है। दीपा मिश्रा, जो भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर में कार्यरत हैं, ने मैथिली भाषा में स्वरचित अत्यंत मार्मिक कविताएँ -‘अबोध’, ‘हमर प्रार्थना में’ तथा ‘मनुष्य’ ( हिन्दी अनुवाद) का पाठ किया। इन कविताओं में एक ऐसे बेहतर मानव और शांतिपूर्ण वातावरण की तलाश है, जहाँ युद्धजन्य उपक्रमों के लिए कोई स्थान नहीं है। साहित्यकार डॉ. क्षमा त्रिपाठी ने राघवेश त्रिपाठी, अच्युतानंद मिश्र और अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का पाठ किया। डॉ. अंशु तिवारी ने कर्नल जॉन मैक्रे की अंग्रेज़ी कविता ‘इन फ़्लैन्डर्स फ़ील्ड्स’ का पाठ तथा विल्फ़्रेड ओवेन की कविता ‘डल्से एट डेकोरम एस्ट’ के हिन्दी अनुवाद का पाठ किया।
कार्यक्रम के अंत में संस्था की संस्थापक डॉ. विजय शर्मा ने सभी गणमान्य अतिथियों, फ़ेसबुक लाइव से जुड़े श्रोताओं, मीडिया बंधुओं तथा स्ट्रीमयार्ड संचालन के लिए कवि परमानंद और वैभवमणि त्रिपाठी – जिन्होंने अपनी व्यस्तताओं के बीच समय निकालकर सहयोग किया – को साधुवाद एवं धन्यवाद ज्ञापित किया। साथ ही, उन्होंने इस श्रृंखला की अगली कड़ी ‘युद्ध के विरुद्ध सिनेमा’ विषय पर चर्चा के रूप में आयोजित किए जाने की घोषणा करते हुए कार्यक्रम का समापन किया।