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जयंती पर विशेष: आंचलिकता के सजग प्रहरी; रेणु

आजादी के बाद साहित्यकारों ने देश के विकास के लिए अपनी लेखनी तो उठाई लेकिन उनकी रचनाएं सिर्फ शहर केंद्रित विकास तक ही सीमित रहीं। साहित्य में गांवों एवं अंचलों के लिए रिक्त पड़े इस स्थान की पूर्ति फणीश्वरनाथ रेणु ने की।

by Anurag Ranjan
जयंती पर विशेष: आंचलिकता के सजग प्रहरी : रेणु
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रांची: हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद ग्रामीण जीवन की व्यथा -कथा पर अपनी धारदार लेखनी चलाने वाले कथा -शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु ही हैं। उनका जन्म बिहार प्रांत के पूर्णिया जिलान्तर्गत औराही हिंगना नामक ग्राम में 4.3.1921 ई. में हुआ और आकस्मिक निधन 11 अप्रैल 1977 को। उनके पिता का नाम शिलानाथ मंडल और मां का नाम पानो देवी था। रेणु जी जब बी एच यू में पढ़ रहे थे, तो उन्हें सुवास नाम की लड़की से प्रेम हो गया था, जो बाद में चेचक की बीमारी से मर गई।उसके प्रेम में पड़कर उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा छोड़ दी थी। रेणु ने तीन विवाह किये।

प्रथम विवाह उनके पिता श्री ने 1941 में रेखा देवी से कराया था,जो अचानक लकवाग्रस्त होकर दिवंगत हो गई।पहली पत्नी से रेणु को एक पुत्री थी ,जिसका नाम कविता राय है। दूसरा विवाह पद्मा रेणु से हुआ,जिससे रेणु को पांच संतानें हुईं- पद्म पराग रेणु,नवनीता राय,अपरजीत, दक्षिणेश्वर प्रसाद राय और वहीदा राय। रेणु ने तीसरा प्रेम विवाह लतिका जी से 1952 में किया।लतिका जी पी एम सी एच पटना में नर्स थीं। रेणु जी 1943-44 में जब दीर्घकालीन रोगग्रस्त हुए,लतिका जी ने उनकी भरपूर सेवा की।लतिका जी पर रेणु का दिल आ गया और नहीं चाहते हुए भी रेणु उनके साथ रहने लगे और अंतत: 1952 में विवाह करना पड़ा।लतिका जी से उनकी कोई संतान न थी और वे हजारीबाग की रहनेवाली थीं।

आजादी के बाद साहित्यकारों ने देश के विकास के लिए अपनी लेखनी तो उठाई लेकिन उनकी रचनाएं सिर्फ शहर केंद्रित विकास तक ही सीमित रहीं। साहित्य में गांवों एवं अंचलों के लिए रिक्त पड़े इस स्थान की पूर्ति फणीश्वरनाथ रेणु ने की। गांव -जवार की भाषा में ही अपनी बात लिखने वाले रेणु को हिंदी साहित्य में आंचलिकता को महत्व पूर्ण स्थान दिलाने के लिए जाना जाता है। वे आंचलिकता के सजग प्रहरी माने जाते हैं। 1954 में प्रकाशित उनका मैला आंचल एक कालजयी आंचलिक उपन्यास है।रेणु का यह उपन्यास पूर्व में लिखित उपन्यासों की परंपरा से हट कर है और अपनी आंचलिकता को लेकर काफी प्रसिद्ध रहा। उपन्यास की भूमिका में रेणु का वक्तव्य इसे आंचलिक घोषित करता है-” यह है मैला आंचल। एक आंचलिक उपन्यास,कथानक है पूर्णिया। मैला आंचल पूर्णिया जिले के एक पिछड़े हुए गांव मेरीगंज की कथा है। इसमें फूल भी है, शूल भी है और धूल भी है।गुलाब भी ,कीचड़ भी चंदन भी। सुंदरता भी कुरूपता भी -लेखक किसी से भी दामन बचाकर निकल नहीं पाया है। “

फणीश्वरनाथ रेणु के इस विज्ञप्ति से प्रतीत होता है कि वे इस अंचल को समग्र और यथार्थ वादी दृष्टि से देख रहे हैं। वे न तो गांव को सीधे साधे जीवन का आदर्श मानकर चलते हैं और न कुछ वर्गों को हिमायत करने के लिए उसे असंतुलित टुकड़ों में बांटकर देखते हैं।अपनी समस्त कटुता,मृदुलता और नये संबंधों के साथ विकसित जो गांव हैं, अनेक जटिल संबंधों से जकड़े जो गांव हैं, उन्हें वे अखंड भाव से देखते हैं। राजनीति, अर्थनीति धर्मनीति सभी इस जीवन को अपनी अपनी सुंदर असुंदर रेखाओं से काटती हुई,उसे नया रूप दे रही हैं। कहा जा सकता है कि फणीश्वरनाथ रेणु ने मैला आंचल में अंचल विशेष की ही कथा नहीं कही है, बल्कि अपनी सशक्त जीवन शैली से कथा को इस प्रकार नियोजित किया है कि समस्त अंचल सजीव होने के साथ -साथ जीवन के सौंदर्य-असौंदर्य सद्-असद् की ओर बड़ी सूक्ष्मता से संकेत करता है और इस प्रकार यह कथन अंचल के ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक परिवेश से तथ्य आयोजन में रहकर जीवंत मानव संवेदनाओं मूल संघर्षों और अंतर्विरोध -ग्रस्त चेतनाओं की कहानी बन जाता है।निष्कर्षत: मैला आंचल को आंचलिक उपन्यासों की परंपरा में मील का पत्थर माना जाता रहेगा। मैला आंचल में आंचलिक भाषा का प्रयोग स्थानीय वातावरण को सजीवता प्रदान करने के लिए हुआ है।

आंचलिक भाषा का प्रयोग तीन रूपों में हुआ है-लोकगीत कथाओं में, पात्रों के कथोपकथन में और उपन्यासकार द्वारा कहीं-कहीं वातावरण के सजीव स्वाभाविक चित्रण के लिए। रेणु का व्यक्तित्व और कृतित्व बहु-आयामी था। उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा कविता लेखन से शुरू की थी, लेकिन बंगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार (ढोढ़ाई चरित मानस के रचनाकार)सती नाथ भादुड़ी के आग्रह पर कथा कहानी लिखने लगे और फिर आंचलिक उपन्यास के जनक कहे जाने लगे।

उनका रचना संसार निम्नलिखित हैं:-

उपन्यास-

  • मैला आंचल
  • परती -परिकथा
  • कलंक -मुक्ति
  • जुलूस
  • दीर्घतपा
  • कितने चौराहे
  • पल्लू बाबू रोड।

संग्रह:

  • ठुमरी
  • अग्नि खोर
  • आदिम रात्रि की महक
  • एक श्रावणी दोपहरी की धूप 5 अच्छे आदमी

संस्मरण –

  • ऋण जल -धन जल
  • वन तुलसी की गंध
  • श्रुत अश्रुतपूर्व

3 रिपोर्ताज -1 नेपाली क्रांति कथा

रेणु की कहानियों का एक महत्त्व पूर्ण संग्रह ठुमरी है; जिसमें कुल 9 कहानियां हैं -1रसप्रिया 2तीर्थोदक 3 ठेस 4 नित्य लीला 5 पंचलाइन 6 सिर पंचमी का सगुन 7 तीसरी कसम अर्थात् मारे गये गुलफाम 8 लाल पान की बेगम 9 तीन बिंदियां। इस संकलन की महत्वपूर्ण कहानी तीसरी कसम अर्थात् मारे गये गुलफाम! है जिस पर शंकर शैलेन्द्र ने 1966 में फिल्म बनाई थी और जिसके निर्देशक बासु भट्टाचार्य थे। हीराबाई की भूमिका वहीदा रहमान और हीरामन की भूमिका में सुप्रसिद्ध अभिनेता राजकपूर थे। फिल्म हाट बक्स पर पिट गई थी । इसमें तीन गुलफाम थे। तीसरी कसम का हीरामन ही सिर्फ गुलफाम नहीं था,रेणु दूसरे गुलफाम थे और तीसरे शंकर शैलेन्द्र।परदे पर दिखने वाले गुलफाम राज कपूर थे,पर परदे के बाहर वे एक सफल व्यावसायिक फिल्म निर्माता थे। लेकिन तीसरी कसम से राजकपूर की जो छवि निर्मित होती है -देहाती भोला -भाला, पवित्र मन का और फूल की तरह का निर्दोष,स्निग्ध चेहरा,एक आम भारतीय जन की की जीती जागती छवि -वह अविस्मरणीय है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह दुर्लभ है।यह वास्तव में रेणु और शैलेन्द्र के भावों का प्रकटीकरण और प्रस्तुतीकरण था।

जिस समय शैलेन्द्र ने तीसरी कसम कहानी पढ़ी ,उसी समय वह गुलफाम मारा गया। उन्होंने बासु भट्टाचार्य ने कहानी सुनते ही फणीश्वरनाथ रेणु को 23 अक्टूबर 1960 को एक पत्र लिखा-” बंधुवर फणीश्वरनाथ,सप्रेम नमस्कार।पांच लंबी कहानियां पढ़ी।आपकी कहानी मुझे बहुत पसंद आई।फिल्म के लिए उसका उपयोग कर लेने की अच्छी पासिबिलिटिज (संभावनाएं) हैं।आपका क्या विचार है? कहानी में मेरी व्यक्तिगत रूप से दिलचस्पी है। इस संबंध में यदि लिखें तो कृपा होगी। धन्यवाद।आपका शैलेन्द्र। रेणु इस पत्र को पढ़कर अभिभूत हो गये और पटना में आकाश वाणी की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर बम्बइया हो गये और आर्थिक दयनीय स्थिति के कारण कालांतर में वे भी गुलफाम बन गये।

ठुमरी लोकप्रिय कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु का अद्वितीय कथाशिल्प है, जिसमें सिलसिलेवार कई कहानियां गांव की भाषा में बतियाती हैं। इस संकलन की कहानियां पाठक को अभिभूत करती हैं।इन कहानियों ने रेणु को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया है, वहां वे अपनी तरह के अकेले कथाकार नजर आते हैं।उनकी कहानियों के नायक भोले और निर्धन होकर भी अपने स्वाभिमान में किसी महाराजा से कम नहीं हैं।उनके भीतर का आदमी इतना बड़ा है कि बहुत बड़े कहे जाने वाले लोग भी उनके सामने बौने नजर आते हैं। ठेस का सिरचन हो,रसपिरिया का पंच कौड़ी हो,तीसरी कसम का हीरामन,या पंचलाइट का गोधन -इन सभी के भीतर इंसानियत को बचाने की बेहद बेचैनी है।ये कहानियां एक अंचल विशेष की होकर भी संवेदना और दृष्टिकोण के धरातल पर एक विराट परिदृश्य उपस्थित करती हैं। इसलिए हर जगह और हर भाषा के पाठकों को ये कहानियां अपनी बिल्कुल अपनी लगती हैं।

रेणु का कथेतर साहित्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। रिपोर्ताज लेखक के रूप में भी उनकी बहुत ख्याति है। नेपाली क्रांति कथा उनका सुप्रसिद्ध रिपोर्ताज संग्रह है। ऋण जल -धन जल , वन तुलसी की गंध और श्रुत-अश्रुत पूर्व उसके संस्मरणों एवं निबंधों का सुप्रसिद्ध संग्रह है। रेणु बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रचनाकार हैं।उनकी रचनाओं में सामाजिक सरोकार के जीवंत रूप प्रस्तुत हुए हैं और उनकी रचना धर्मिता बहुरंगी और बहुधर्मी है। रेणु आंचलिकता के अमर कथा शिल्पी हैं।

कथा -शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की जयंती पर यह लेख डॉ. जंग बहादुर पाण्डेय, पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग रांची विश्वविद्यालय, रांची द्धारा लिखित है।

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