नहीं मालूम क्यों? लेकिन मुझे हरिद्वार और उत्तरकाशी में बहुत ही ज्यादा समानता नजर आती है। शायद गंगा की वजह से या फिर मेरे कुछ और निजी अनुभवों की वजह से, लेकिन कुछ तो है जो मुझे अक्सर अपनी तरफ खींचता रहा है। यह छोटा सा शहर हमेशा अपना सा लगता है। कई बार इस शहर से तारतम्य बिठाने की कोशिश की है। कई बार उस महिन धागे को पकड़ने की कोशिश भी की है लेकिन नहीं पकड़ में आया है।
कभी-कभी सोचने लगता हूं कि क्या अनजान जगहों से इंसान का कोई रिश्ता होता है? जैसे कि मैं कभी अफ्रीका नहीं गया। वहां के बारे में मैंने ज्यादा कुछ नहीं सुना है। वहां मेरा कोई नहीं रहता, वहां की हर जगह से मैं अनजान हूं। क्या उन अनजान जगहों से मेरा कोई रिश्ता हो सकता है?
शायद, नहीं। स्पष्ट रूप से नहीं।
मैं भी यही सोचता रहा हूं लेकिन जब उन जगहों पर पहुंचा हूं तो समझ में यही आया है कि एक रिश्ता तो होता है। फिर चाहे वह रिश्ता अजनबियत और अपनेपन का ही क्यों ना हो। क्या आपको अजनबियों से मिलने की आदत है? आप उनसे बात करना पसंद करते हो? यदि हां तो वह रिश्ता आपको भी समझ में आता होगा।
मैं जब कभी अजनबी शहर में होता हूं तो सबकुछ भूलकर उस शहर से मिलने की कोशिश करता हूं। सबकुछ भूलकर उस शहर से बात करता हूं। अपनी अजनबियत को अपनेपन के एक छोटे से धागे से शहर को ऐसे बांध देता हूं कि लगने लगता है कि यह अपना ही तो है। सच मानिए जिस जिस नगर में आपके कदम पड़ते हैं ना वह अपना हो जाता है।
मैं अपनी हर यात्रा से पहले कुछ अजनबी शहरों की लिस्ट बनाता हूं और फिर कुछ दिनों बाद उन्हें अपना बनाकर लौट आता हूं। परंतु इस बार मेरे पास कोई लिस्ट नहीं है। फिर भी पता नहीं क्यों दर-दर भटक रहा हूं। क्या पता कि पुराने रिश्तों को मजबूत करने आया हूं और रही बात उत्तरकाशी की तो इससे तो वर्षों पुरानी जान पहचान रही है।
जिसकी कई वजहें रही है, एक तो यही कि गंगोत्री के मार्ग पर स्थित एक बेहद प्राचीन तीर्थ है जो कि देवाधिदेव भगवान शंकर का निवास माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि उन्होंने इस स्थान पर गोपी का रूप धारण करके तप किया था। जिस जगह उन्होंने तपस्या की, वह स्थान आज भी ‘गोपेश्वर महादेव’ के नाम से जाना जाता है। यह जगह पौराणिक के साथ-साथ भौगोलिक रूप से भी काफी समृद्ध है।
हिमालय की खूबसूरत घाटी में स्थित उत्तरकाशी गंगा-भागीरथी के दाएं तट पर स्थित है तथा पूर्व और दक्षिण की ओर नदी से घिरा है। इसके उत्तर में अस्सी गंगा और पश्चिम में वरुणा नदी है। वरुणा और अस्सी के मध्य का क्षेत्र ‘वाराणसी’ के नाम से प्रसिद्ध है। याद रखे कि यह वाराणसी उत्तप्रदेश वाला वाराणसी नहीं है, यह उत्तरकाशी वाला वाराणसी है। इसे ‘पंचकाशी’ भी कहा जाता है।
यह वरुणावत पर्वत की घाटी में स्थित है तथा इसके पूर्व में केदार घाट और दक्षिण में मणिकर्णिका घाट हैं। इस शहर से विश्वनाथ मंदिर की वजह से पहला परिचय बचपन में ही हो गया था। लेकिन असल जान पहचान तब बनी जब 2010 में मैं उत्तराखंड पर्यटन निदेशालय की परियोजना वीर चन्द्र गढ़वाली परियोजना का मध्यावधि मूल्यांकन करने यहां आया।
यह जगह प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। एक तरफ जहां पहाड़ों के बीच बहती नदियां दिखती हैं वहीं दूसरी तरफ घने जंगल। हम अक्सर सुबह निकलते पहाड़ों पर चढ़ाई का लुफ्त उठाते और शाम को लौट आते थे। मुझे उस समय ही समझ में आ गया था कि इस शहर का धार्मिक महत्व के अलावा एक अन्य आकर्षण पर्वतारोहण भी है।
मैंने तभी हर-की-दून, डोडीताल, यमुनोत्री तथा गोमुख से पर्वतारोहण किया और पर्वतारोहण के असल रोमांच से परिचित हो पाया। लेकिन यह एक कठिन काम है और उसी को समझ में आता है जो इसे करता अथवा करना चाहता है। मेरा जुड़ाव शौकिया रहा और धीरे-धीरे कम हो गया।
सुरेश यादव जी ने मुझे तक़रीबन पूरा जिला घुमाया और तमाम पर्यटन स्थलों के बारे में भी बताया। मनेरी के बारे में उन्होंने ही पहली बार बताया था। उत्तरकाशी से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह जगह घूमने-टहलने के लिहाज़ से काफी अच्छी है। मनेरी में ही भागीरथी नदी पर एक डैम बनाया गया है जिसकी वजह से यहां सैलानियों की काफी भीड़ लगी रहती है। यात्री इस जगह पर अच्छा समय व्यतीत करने के लिहाज से आते हैं।
मनेरी के आस पास कई छोटे-छोटे पहाड़ी गांव हैं जैसे जामक, कामर, हिना, भाटासौड़ आदि। इन गांवों में जाने पर पहाड़ी जीवन की झलक मिलती है और काफी अच्छा लगता है। वह मुझे इनमें से कई गांवों का भ्रमण भी कराया थे। गांव घूमने के दौरान मैंने जमकर सेब खाये थे यह बात आज भी मेरी स्मृतियों में दर्ज है।
उत्तरकाशी आने वाले लोगों की इच्छा काशी विश्वनाथ यात्रा के साथ गंगोत्री माता के दर्शन की भी रहती है, कुछ साहसिक यात्री ऐसे भी होते हैं जिनकी इच्छा गोमुख तक जाने की रहती है। परंतु यहां जाना हर किसी के बस की बात नहीं। बहुत ज्यादा हिम्मत और साहस की जरुरत होती है।
सरकारी नियमों के मुताबिक इस जगह पर जाने के लिए परमिशन लेना अनिवार्य है। गौमुख के लिए हर दिन केवल 150 लोग ही जा सकते हैं। गोमुख हिमनद ही भागीरथी नदी के जल का स्रोत है जो आगे चलकर गंगा के नाम से जानी जाती है। यह हिंदुओं का बहुत ही पवित्र स्थान माना जाता है। यहां आने वाला हर यात्री बिना स्नान किए नहीं वापस लौटना चाहता है।
यह गंगोत्री से अठारह किलोमीटर की दूरी पर है। यहां से चौदह किलोमीटर दूर भोजबासा में एक पर्यटक बंगला है जहां पर्यटकों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था होती है। इन सबके अलावा उत्तरकाशी पहुंचने वाले पर्यटक गंगनानी, दोदीताल, दायरा बुग्याल, सात ताल और केदार ताल भी जाना पसंद करते हैं।
यह सब बातें उन्होंने मुझे कुछ साल पहले राह चलते-चलते ही बता दी थी और ऐसा लगने लगा था कि मैं पूरे क्षेत्र को अच्छी तरह से जान गया था। इस जगह पर हर तरफ शिव की महिमा का बखान और गुणगान है। एक सन्यासी ने मुझसे यह तक कहा था कि इस जगह पर जितने कंकड़ हैं, उतने ही शंकर हैं। और ऐसा मैंने अपनी यात्राओं के दौरान पाया भी, दरअसल पहाड़ ही शिव हैं।
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