Home » मकर संक्रांति: परंपरा और वैशिष्ट्य

मकर संक्रांति: परंपरा और वैशिष्ट्य

by Rakesh Pandey
Makar sankranti special
WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Follow Now

डॉ जंग बहादुर पाण्डेय
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
रांची विश्वविद्यालय, रांची
मोबाइल: 9431595318, 8797687656
ई-मेल:[email protected]

Makar Sankranti Special: हमारे ज्योतिष शास्त्र में 12 राशियां मानी गई हैं- मेष,वृष,मिथुन, सिंह, कन्या, तुला,वृश्चिक, धनु,मकर कुंभ और मीन। इन सभी राशियों का अपना-अपना योग और भोग है। संपूर्ण मानव जगत इन्हीं 12 राशियों में विभाजित है। इन्हीं 12 राशियों में से एक राशि है मकर। इस राशि में जब सूर्य प्रवेश करता है, तब मकर संक्रांति का पुनीत पर्व मनाया जाता है। भौगोलिक दृष्टि से संपूर्ण पृथ्वी दो गोलार्द्ध में बंटी हुई है-उतरी गोलार्द्ध और दक्षिणी गोलार्द्ध।

भौगोलिक दृष्टि से विषवत रेखा दोनों गोलार्द्धों के बीचों बीच अवस्थित है। उतरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा और दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा है। सूर्य जब दक्षिणी गोलार्द्ध से उतरी गोलार्द्ध के लिए प्रस्थान के क्रम में मकर रेखा पर अवस्थित होता है, तो मकर संक्रांति का पुनीत पर्व पड़ता है। सूर्य दक्षिणायण से उतरायण की ओर मकर संक्रांति के दिन ही होता है। यह अवसर भारतवर्ष में प्रत्येक वर्ष प्राय: 14 जनवरी को ही पड़ता है। अत: संपूर्ण भारतवासी सूर्य की ओर मुखातिब होकर प्रफुल्लित होते हैं और हर्षातिरेक में उनका स्वागत इस पर्व को मनाकर करते हैं।

स्नेह और मधुरता का प्रतीक

मकर संक्रांति का पर्व स्नेह और मधुरता का प्रतीक है। इसलिए इस पावन पुनीत अवसर पर तिल और गुड़ बांटा और खाया जाता है। तिल स्नेह का और गुड़ मधुरता का प्रतीक है। इस दिन से सूर्य उत्तर की ओर झुका हुआ दिखाई देता है। दिन बड़े और रातें छोटी होनी शुरू हो जाती हैं। प्रकाश का अंधकार पर और धूप का ठंड पर विजय पाने की यात्रा शुरू हो जाती है। वेदों और पुराणों में मकर संक्रांति के महत्व का काफी बखान किया गया है। वेदों में इस पर्व की महत्ता स्वीकार करते हुए लिखा गया है:

मित्रस्य या चक्षुषा सर्वाणी भूतानि समीक्षान्ताम्।
मित्रस्याहम चक्षुषा सर्वाणी भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।

अर्थात् सब प्राणी मेरी ओर स्नेह भाव से देखें। मैं सब प्राणियों की ओर स्नेह से देखता हूं। हम सभी स्नेह की दृष्टि से देखें। इस तरह वेद के इन उपर्युक्त मंत्रों में भी पारस्परिक स्नेह और माधुर्य की आकांक्षा व्यक्त की गई है। इस तरह यह सभी आत्माओं के लिए बड़ा दिन बन गया है।

(Makar Sankranti Special)

मत्स्य पुराण के 98वें अध्याय में मकर संक्रांति के पावन कर्मों को मुखरित करते हुए लिखा गया है कि मकर संक्रांति के एक दिन पूर्व नर और नारी को दिन में एक बार भोजन करना चाहिए। मकर संक्रांति के दिन तिल युक्त जल से स्नान शुभ माना गया है। किसी संयमी प्रकृति वाले ब्राह्मण गृहस्थ को भोजन सामग्रियों से युक्त तीन पात्र तथा एक गाय का दान रूद्र तथा धर्म के नाम पर करना चाहिए। दान करते समय इस मंत्र को पढ़ना चाहिए:

यथा भेद न पश्यामि,शिवविष्णवर्कपद्मजान्।
तथा ममास्तु,विश्वात्मा, शंकर:शंकर:सदा।

(मत्स्य पुराण 38/17)
इस श्लोक का अभिप्राय है कि मैं शिव और विष्णु तथा सूर्य और ब्रह्मा में कोई अंतर नहीं करता, वह शंकर जो विश्व की आत्मा हैं सदा कल्याणकारी हों।
यदि धनवान हों तो वस्त्र, आभूषण और स्वर्णादि का दान करना चाहिए, परन्तु यदि निर्धन हों तो विप्र देवता को फलदान करना चाहिए। दान करने के पश्चात् दही चूड़ा, गुड़ एवं तिलयुक्त भोजन करना चाहिए और यथा शक्ति अन्य लोगों को भी भोजन कराना चाहिए।

गंगा स्नान महापुण्य दायक:

मकर संक्रांति के पावन अवसर पर गंगा स्नान का विशेष महत्व है। मृत्यु लोक मालिन्य मेटने के हेतु स्वर्ग से उतरी हुई पतितपावनी गंगा भारतीय संस्कृति की तरल उच्छवास धारा है। आस्था के आधार पर हम उसे जगत जननी मां की संज्ञा से विभूषित करते हैं। वह स्वर्ग की रुचिर वरदान धारा है, जो अपने शुभ्र आंचल से मृत्यु लोक के प्राणियों के सारे कल्मष को प्रछालित कर देती है। उसके दर्शन और स्पर्श से युग-युग के कलुष ध्वस्त हो जाते हैं। व्यक्ति का अंत:बाह्य सब स्वच्छ और धवल हो जाता है।

युग युगांतर से कवियों ने गंगा के महात्म्य की वंदना की है और युगों से गंगा अपनी तरल स्वर्गिक विभूति से लोक जीवन का कल्याण करती आ रही है; तभी तो मैथिल कोकिल विद्यापति गंगा के सानिध्य को छोड़ना नहीं चाहते:

बड़ सुख सार पाओल तीरे,
छोडइत निकट नयन बह नीरे।
कर जोरि बिनवउँ बिमल तरंगे
पुन दरशन होय, पुनमति गंगे।

महाकवि पद्माकर ने तो अपनी गंगा लहरी में गंगा की महिमा का बखान करते हुए यहां तक लिख दिया है कि:

जमपुर द्वारे लगे, तिनमें किवारे कोउ,
हैं न रखवारे ऐसे बनि कै उजारे हैं।
कहैं पद्माकर तिहारे प्नन धारे तेऊ,
करि अघ भारे सुरलोक को सिधारे हैं।
सुजन सुखारे करे पुन्य उजियारे अति,
पतित कतारे,भवसिन्धु तें उतारे हैं।
काहू ने न तारे तिन्हैं गंगा तुम तारे और,
जेते तुम तारे ,तेते नभ में न तारे हैं।
पद्माकर गंगा लहरी छंद:10

मकर संक्रांति के अवसर पर काशीवास भी पुण्यदाक माना जाता है। संस्कृत की सूक्ति है कि येषाम् क्वापि गति:नास्ति तेषाम् वाराणसी गति: अर्थात् जिसे कहीं मोक्ष नहीं मिलता उसे विश्वनाथ की नगरी काशी में मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यदि ईश्वर की कृपा से चना, चबेना और गंगा जल सुलभ रहे, तो काशी और विश्वनाथ दरबार छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं:

चना चबेना गंग जल,जो पूरवै करतार।
काशी कबहुँ न छोड़िए विश्वनाथ दरबार।।

अर्थात् मकर संक्रांति के पावन अवसर पर काशीवास और गंगास्नान महापुण्य दायी माना गया है।

मकर संक्रांति पर्व की विधि

यह पुनीत पर्व माघ कृष्ण प्रतिपदा को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसकी भव्यता और विशालता तो प्रयागराज में गंगा तट पर देखी जा सकती है। इस संगम की पुण्य स्थली पर एक माह पूर्व से ही देश के कोने-कोने से लोग आकर झोपड़ियां बनाकर रहते हैं। देश का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं होता, जहां के वासी इस त्योहार पर दिखाई न देते हैं। इस दिन त्रिवेणी संगम पर स्नान की अपनी ही महता है। ब्रह्म मुहूर्त में भक्त जन भीष्म पितामह की माता गंगा जी,यमराज की भगिनी यमुना जी और ब्रह्मा की संगिनी अंत:सलिला सरस्वती की जय-जय कार करते हुए त्रिवेणी संगम में स्नान करते हैं।

उसके बाद अक्षयवट की आराधना और क्षेत्र के देवता बेणीमाधव के दर्शन कर लौटते हैं। संपूर्ण भारतवर्ष के प्रत्येक क्षेत्र में मकर संक्रांति के अवसर पर मेला लगता है, लेकिन इतना विशाल मेला भारतवर्ष में इस अवसर पर संगम के अतिरिक्त कदाचित ही कहीं और लगता होगा। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पर्व एवं त्योहार के अवसर पर किसी न किसी प्रकार के मेले का आयोजन होता है; क्योंकि मेला एक प्रकार से भारतीय संस्कृति की आत्मा है। कविवर आर.एन.गौड़ ने ठीक ही कहा है-

भारत की संस्कृति में सुन्दर,
यदि मेलो का मेल न होता।
तो निश्चय ही भारपूर्ण मानव,
जीवन भी खेल न होता।।

परिश्रम करने के बाद व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से और समाज सामूहिक रूप से विश्राम और मनोरंजन करना चाहता है। अपने पुराने मित्रों, परिचितों और संबंधियों से मिलकर वह कुछ समय के लिए जीवन के अभिशापों को भूला देना चाहता है। वह अपने पूर्वजों के आदर्शों से संघर्ष और सफलता की प्रेरणा प्राप्त करता है। उसके बताए हुए मार्गों पर चलकर अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास करता है। मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाले भारतीय मेलों का इन्हीं दृष्टिकोणों से विशेष महत्व है।

मानव ने सभ्यता के संघर्ष में जब-जब सफलता प्राप्त की,तब-तब उसने उसकी प्रसन्नता में कोई विशेष मेला प्रारंभ कर दिया। मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाला मेला भी भुवन भास्कर के आगमन पर मानव के हर्षातिरेक का प्रतीक है।

विभिन्न नाम एवं विधियां

यह पर्व बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और उतरप्रदेश में खिचड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। दक्षिण में यह पर्व पोंगल, पंजाब में लोहड़ी, असम में माघ बिहू के नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र में नव विवाहिता स्त्रियां अपनी पहली संक्रांति को तिल का तेल, कपास और नमक का दान सौभाग्वती स्त्रियों को देती हैं। वे सौभाग्यवती स्त्रियां अपनी सखियों को हल्दी, रोली,तिल और गुड़ प्रदान करती हैं।

पतंग बाजी की परंपरा

कहा जाता है सूर्य के उतरायण होने के उपलक्ष्य में भगवान राम ने पतंग उड़ाई थी। उड़ते-उड़ते वह पतंग इन्द्र लोक में चली गई थी। उसे इन्द्र पुत्र जयंत ने पकड़ ली। राम ने पतंग लाने के लिए हनुमान जी को इन्द्र लोक में भेजा। जयंत पत्नी ने इस शर्त पर पतंग लौटाई कि भगवान राम उनको दर्शन दें। हनुमानजी ने सब बात बताई। राम ने चित्रकूट में दर्शन देना स्वीकार किया, तब जयंत ने पतंग लौटाई। पतंग बाजी आपसी भाईचारे और प्रतिस्पर्धा का भी प्रतीक है।

राष्ट्रीय पर्व

मकर संक्रांति का पावन पर्व किसी धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग या संप्रदाय का पर्व नहीं है। दीपावली, नागपंचमी और रक्षाबंधन यदि हिन्दुओं के प्रिय पर्व-त्योहार हैं, तो ईद बकरीद और मुहर्रम मुस्लमानों के। क्रिसमस, ईस्टर यदि ईसाइयों के पर्व हैं, तो सरहुल, सोहराय आदिवासियों के। रथयात्रा यदि उत्कलवासियों का पर्व है, तो ओणम केरलवासियों का। परंतु मकर संक्रांति ही एक ऐसा पर्व है, जो हिमालय के हिम मंडित शिखरों से मातृ चरण पखारने वाली कन्याकुमारी की उत्कृष्ट लहरों तक,एलिफेन्टा की गुफाओं से असम की दुर्गम घाटियों तक बिना किसी भेदभाव के पूरे भारतवर्ष में धूमधाम से मनाया जाता है।

यह वह पर्व है, जिसमें अखिल भारत की अंतरात्मा का सितार आनंदमयी रागिनी में बज उठता है। मकर संक्रांति भ्रातृ भावना का प्रतीक है। इस दिन पारस्परिक वैमनस्य को भूलकर लोग आपस में भाईचारे से मिलते हैं और भुवन भास्कर की भांति देश के सौभाग्य वृद्धि की कामना करते हैं। मैं नव वर्ष में आगत इस मकर संक्रांति के महापर्व पर सबके मंगल की कामना करता हूं:-

बढ़ें आप मंगलमय पर,
रहें तत्व अनुकूल सभी।
आगे बढ़ते पीछे को भी,
रहें देखते कभी कभी।

 

 

Related Articles