Dhanbad News : झारखंड आंदोलन के पुरोधा, आदिवासी अस्मिता के प्रहरी और सामाजिक न्याय के प्रतीक शिबू सोरेन को ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि ऐसे ही नहीं मिली। यह सम्मान उन्हें आदिवासियों के अधिकार, जल-जंगल-जमीन की रक्षा और सूदखोर महाजनों के खिलाफ चलाए गए जनांदोलन की बदौलत मिला। खासकर टुंडी में चले धनकटनी आंदोलन ने उन्हें जननायक बना दिया। उनके संघर्ष की कहानी झारखंड की आत्मा से जुड़ी है।
टुंडी में छिड़ा था शोषण के खिलाफ आंदोलन
शिबू सोरेन का सामाजिक संघर्ष पिता सोबरन मांझी की हत्या के बाद शुरू हुआ, जब वे केवल 13 वर्ष के थे। उस समय साहूकारों और महाजनों ने आदिवासी समाज को शोषण की बेड़ियों में जकड़ रखा था। टुंडी के जंगलों में रहकर शिबू सोरेन ने अपने साथियों के साथ सूदखोरी और जमीन हड़पने की प्रवृत्ति के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया। महाजनों द्वारा कब्जा की गई जमीनों की फसलें काटकर वे आदिवासियों को लौटाने लगे।
‘धनकटनी आंदोलन’ से मिला ‘दिशोम गुरु’ का सम्मान
इस आंदोलन में उन्होंने महाजनों के खेतों से धान की कटाई कर गरीब आदिवासियों को लौटाना शुरू किया। यह जनप्रतिरोध धीरे-धीरे एक आंदोलन में तब्दील हो गया। आदिवासियों के हक के लिए उनके संघर्ष ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया कि समाज ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि दी, जिसका अर्थ है – ‘देश या दुनिया का गुरु’। आदिवासी समाज आज भी उन्हें देवता की तरह पूजता है।
1973 में पहली बार धनबाद में आए थे सार्वजनिक रूप से
चार फरवरी 1973 को शिबू सोरेन, एके राय और बिनोद बिहारी महतो ने चिरागोड़ा (धनबाद) में झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। इसी दौरान धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में एक विशाल सभा हुई, जहां पहली बार गुरूजी जंगलों से बाहर आए और हजारों लोगों के सामने सार्वजनिक रूप से बोले। यहीं से झारखंड आंदोलन को संगठित रूप मिला।
पोखरिया आश्रम बना आंदोलन का मुख्य केंद्र
टुंडी के पोखरिया स्थित आश्रम 1972 से 1976 तक आदिवासी आंदोलन का मुख्य केंद्र बना रहा। गुरूजी यहीं रहते और यहीं से आंदोलन का संचालन करते थे। एक आवाज पर हजारों आदिवासी तीर-धनुष लेकर आंदोलन में शामिल हो जाते। जबरन हड़पी गई जमीनों से फसलें काटी जाती थीं और आदिवासियों को वापस दी जाती थीं। आज भी पोखरिया का यह आश्रम आदिवासी संघर्ष और आंदोलन का ऐतिहासिक प्रतीक माना जाता है।
साथी रहे बिनोद बाबू और एके राय
शिबू सोरेन के इस आंदोलन में उन्हें कामरेड एके राय और बिनोद बिहारी महतो जैसे समाजसेवियों और विचारकों का भी साथ मिला। इन तीनों नेताओं ने मिलकर अलग झारखंड राज्य की अवधारणा को लोगों तक पहुंचाया – शिबू सोरेन ने आदिवासी अधिकारों की, एके राय ने मजदूर अधिकारों की और बिनोद बाबू ने सामाजिक अधिकारों की आवाज उठाई।
शिबू सोरेन केवल एक नेता नहीं, एक चेतना और संघर्ष का नाम हैं। टुंडी का धनकटनी आंदोलन, पोखरिया आश्रम और झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना – ये सभी उनके अद्भुत नेतृत्व और समाज के प्रति समर्पण के प्रमाण हैं। दिशोम गुरु का यह योगदान झारखंड के इतिहास में हमेशा सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।