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Chaturmas : क्या होता है चातुर्मास, इस काल में साधना का जानिए महत्व-महात्मय

Chaturmas : चातुर्मास में जीवसृष्टि के पालनकर्ता श्रीविष्णु शयन करते हैं; इसलिए वातावरण में स्थित अनिष्ट शक्तियों द्वारा कष्ट पहुंचाने का स्तर बढ़ जाता है।

by Birendra Ojha
Chaturmas spiritual period in Hinduism, significance of rituals and fasting
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कोलकाता : ‘आषाढ शुक्ल एकादशी ( देवशयनी एकादशी) से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी), इन चार माह को ‘चातुर्मास’ (Chaturmas) कहते हैं।

सनातन संस्था की बबीता गांगुली बताती हैं कि इस वर्ष चातुर्मास 6 जुलाई से प्रारंभ हुआ है और 1 नवंबर को समाप्त होगा। इस काल में श्रीविष्णु शेषशय्या पर योगनिद्रा लेते हैं। मनुष्य का एक वर्ष देवताओं की एक अहोरात्रि है! इसका अर्थ मनुष्य के एक वर्ष के प्रथम छः माह देवताओं का एक दिन तथा मनुष्य के शेष छह माह देवताओं की एक रात होती है, परंतु देवता चातुर्मास में अर्थात केवल चार माह ही निद्रा लेते हैं। एक तिहाई रात शेष रहते ही जाग जाते हैं।

ऐसी मान्यता है कि चातुर्मास का काल देवताओं के शयन का काल है। इसलिए चातुर्मास के आरंभ में जो एकादशी आती है, उसे शयनी अथवा देवशयनी एकादशी कहते हैं। तथा चातुर्मास के समापन पर जो एकादशी आती है, उसे देवोत्थानी अथवा प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। परमार्थ के लिए पोषक बातों की विधियां और सांसारिक जीवन के लिए हानिकारक विषयों का निषेध, यह चातुर्मास की विशेषता है।

Chaturmas के दो मुख्य उद्देश्य

परमार्थ हेतु पोषक तथा ईश्वर के गुणों को स्वयं में अंतर्भूत करने हेतु नामजप, सत्संग, सत्सेवा, त्याग, प्रीति इत्यादि सभी कृत्य करना, साथ ही गृहस्थी एवं साधना के लिए मारक तत्त्वों का अर्थात षड्‌रिपुओं का निषेध करना, चातुर्मास के ये दो मुख्य उद्देश्य हैं।

स्वास्थ्य की दृष्टि से चातुर्मास में व्रतस्थ रहने का महत्व!

चातुर्मास में देवताओं के योगनिद्रा में होने से वातावरण में रज-तम बढ़ता है। उसके कारण ‘स्वयं में सात्त्विकता बढाने हेतु चातुर्मास में व्रतस्थ रहना चाहिए’, ऐसा शास्त्र में कहा गया है। चातुर्मास में पाचन शक्ति धीमी पड जाने से इस काल में व्रतस्थ रहने से लाभ होता है। एकभुक्त रहना (एक ही बार भोजन करना), पूरा दिन उपवास रखना, सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना, विशेष दिन विशेष आहार लेना; शरीर की दृष्टि से ये सभी कृत्य लाभकारी होने के कारण हिंदू संस्कृति में चातुर्मास की अवधि में व्रतस्थ रहने का महत्व है। इसके साथ ही चातुर्मास में रज-तमोगुण युक्त खाद्यपदार्थ का सेवन, केश काटना, विवाह, गृह प्रवेश एवं तत्सम अन्य कार्य वर्जित हैं।

ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से Chaturmas का महत्व!

ईश्वर प्राप्ति के लिए मनुष्य जीवन का बहुत महत्व है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को सूर्य मिथुन राशि में होते हैं तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को सूर्य तुला राशि में होते हैं। चातुर्मास के काल में मिथुन, सिंह एवं कन्या राशियों में समाहित रवि शुभकारक होते हैं। तुला राशि के रवि को अशुभ माना जाता है। रवि ग्रह आत्मा के कारक हैं। आत्मोद्धार हेतु अर्थात आत्मा की शुद्धि हेतु यह काल पूरक है।

चातुर्मास में तीर्थस्नान का महत्व!

चातुर्मास में श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं। उसके कारण तीर्थस्थान का विशेष महत्व है। तीर्थस्नान करने से ईश्वरीय शक्ति एवं चैतन्य मिलता है। जिन्हें तीर्थस्नान करना संभव नहीं है, वे स्नान के जल में बेलपत्र डालकर न्यूनतम 11 बार ‘ॐ नम: शिवाय’ नामजप करते हुए स्नान करें।

अनिष्ट शक्तियों से कष्टों का स्तर घटाने में साधना महत्वपूर्ण!

चातुर्मास (Chaturmas) में जीवसृष्टि के पालनकर्ता श्रीविष्णु शयन करते हैं; इसलिए वातावरण में स्थित अनिष्ट शक्तियों द्वारा कष्ट पहुंचाने का स्तर बढ़ जाता है। उसके कारण इस काल में साधना करते समय असंख्य शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इस वर्ष के चातुर्मास के आरंभ से ही अनेक साधकों को हो रहे कष्टों में वृद्धि हुई है। इसे टालने हेतु चातुर्मास में अनेक व्रत रखे जाते हैं। व्रत विधि, उपवास करना, सात्त्विक आहार तथा नामजप के कारण हमारा सत्त्वगुण बढता है। इससे हम शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिसे इन रोगोंका अर्थात रज-तम का प्रतिकार करने के सक्षम बनते हैं। उसके कारण हमारी साधना में वृद्धि होकर उससे वातावरण में समाहित अनिष्ट शक्तियों से होनेवाले कष्टों का प्रमाण भी कम होता।

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