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नौकरशाही : बात पर बात बनाम हकीकत

नौकरशाही को लेकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की ओर से की गई एक टिप्पणी के बाद नई बहस शुरू हो गई है। जानें झारखंड का हाल द फोटोन न्यूज के चीफ एक्जीक्यूटिव एडिटर की कलम से

by Dr. Brajesh Mishra
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न्ने गुरु अखबार के पन्ने उलट रहे थे। नजदीक जाकर देखा तो मोटे-मोटे अक्षरों में हेडलाइन छपी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा- ‘आइपीएस-आइएफएस पर श्रेष्ठता दिखाने का प्रयास करते हैं आइएएस’। माजरा समझ में आ गया। गुरु अपनी रुचि के अनुसार खबर को चटखारे लेकर पढ़ रहे थे। लिहाजा, बिना देर किए बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया। ‘और गुरु! कहां ध्यान लगाए बैठे हैं?’ अखबार से सिर उठाकर गुरु मुखातिब होते हुए बोले, अरे! अखबार में कोर्ट की टिप्पणी देख रहा था। हाकिम लोगों के बारे में अब तक जो बातें पर्दे के पीछे कही जाती थीं, कोर्ट ने सार्वजनिक रूप से कह डाली है। बातचीत को निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए गुरु की मान्यता से विचलन आवश्यक था। सो, अपनी तरफ से थोड़ा छेड़ दिया। ‘

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बात पूरी तरह से सही नहीं लग रही गुरु!’ वाक्य पूरा होने भर की देर थी। गुरु भड़क गए। क्यों? क्या गलत है इसमें। सही तो कहा है कोर्ट ने। श्रेष्ठता साबित करने के मामले में तो ये लोग अपनी सेवा के लोगों तक को नहीं छोड़ते, दूसरों की बात कौन करे? गुरु के अंदर की पीड़ा मुंह तक आ गई थी। आग में बस घी डालने की देर थी।

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लिहाजा, एक और पंक्ति गुरु के सामने ‘फेंक’ डाली- झारखंड का हाल ऐसा नहीं है। यहां तो सब लोग एक-दूसरे की बड़ी इज्जत करते हैं। फन्ने गुरु बिल्कुल फनफना गए। बोले, अब चुप हो जाओ। मुंह मत खुलवाओ। क्या अलग है जी यहां? एजेंसी की कार्रवाई में दो-दो लोग अंदर चले गए। किसी ने चूं भी कहा। मानो, सबसे बड़े गुनहगार यही दोनों थे। बाकी सब तो दूध के धुले हैं।

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दूसरा राज्य होता तो कम से कम एक नोट आता। निष्पक्ष जांच की मांग होती। मगर, झारखंड में तो मुखर रूप से इतनी भी औपचारिकता पूरी करने की जरूरत नहीं समझी गई। छवि की छवि को लेकर छाछठ (छियासठ) बातें कही गईं। किसी ने काट-छांट नहीं की। मानो, कोई किसी को नहीं जानता। किसी को नहीं पहचानता।

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एक से बढ़कर एक ओहदेदार बैठे थे कुर्सी पर। किसी ने आगे बढ़कर नहीं पूछा। क्या हुआ? क्यों हुआ? क्या मिला? कहां मिला? कितना मिला? बस शांत बैठकर सुर्खियां देखते रहे। मानो यह चुप्पी ही उन्हें उनसे श्रेष्ठ बना रही हो। अरे, हकीकत में तो यहां हाल इतना बुरा है कि जिले से सचिवालय पहुंचाने वाले अधिकारियों को लेकर भाव बदल जाते हैं।

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दिन में तीन बार बेटे के लिए गेस्टहाउस और बेटी के लिए गाड़ी का प्रबंध कराने वाले कई सीनियर फोन करना बंद कर देते हैं। आरोप क्या लगा, मानो सजायाफ्ता हो गए हों। जिले की बड़ी कुर्सी से उतरकर राजधानी पहुंचने वाले लोगों का हाल यह है कि अगर पूर्व से बंदोबस्त न हो तो गाड़ी-बाड़ी तक के लिए चक्कर लगाना पड़ता है। कोई किसी का साथ देने वाला नहीं है। यह बात जो जितनी जल्दी समझ ले, उतना अच्छा। बात पूरी होने के बाद गुरु ने लंबी सांस भरी और फिर अखबार की तरफ देखने लगे…।

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