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न जा कहीं अब न जा…

झारखंड की नौकरशाही में इन दिनों अंदरखाने बड़ी हलचल है, ठंड के मौसम में बदलाव की बयार कब चले, सबकी निगाहें बस इसी पर लगी हैं। इस बीच क्या कुछ चल रहा है सत्ता के गलियारे में, जानें हमारे चीफ एग्जीक्यूटिव एडिटर ब्रजेश मिश्र की कलम से।

by Dr. Brajesh Mishra
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राजधानी की नौकरशाही वाले मुहल्ले में घूमते हुए फन्ने गुरु एक चौराहे से गुजरे। अचानक उनकी नजर किनारे की एक दीवार पर जा टिकी। बड़े-बड़े अक्षरों में कुछ लिखा हुआ दिखा। कवि हृदय भाव से भर गया। यूं ही कुछ गुनगुनाने लगे। सहचर के रूप में ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्रचित्त करते हुए समझने की कोशिश की। पता चला गुरु मजरुह सुलतानपुरी का गीत दोहरा रहे हैं :- न जा कहीं, अब न जा दिल के सिवा…। फिल्म का नाम “मेरे हमदम मेरे दोस्त”। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और गायक मोहम्मद रफी।

मन व्यग्र हो गया, आखिर गुरु वर्ष 2025 में टहलते-टहलते, सन 1968 में कहां पहुंच गए? कुछ देर साथ चलने के बाद रहा नहीं गया, सो पूछ लिया। गुरु,कहां खो गए? पुष्पा के जमाने में आप पुराने गीत गा रहे हैं? बस सवाल पूछने भर की देर थी, गुरु मानो ज्ञान देने के लिए भरे बैठे थे। फिल्म का कनेक्शन सीधे अध्यात्म से जोड़ दिया। बोले, “बच्चा अभी तू बहुत कच्चा है। ये संसार है, यहां सब कुछ आपस में जुड़ा है।अलग-अलग विषयों में भी परस्पर संबंध होते हैं। कई बार कुछ दिख जाता है और समझ में आ जाता है।

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मानव समझता है कि वह सृष्टि को समझ गया। अधिकांश बार बहुत कुछ दिखता है, लेकिन समझ नहीं आता। लिहाजा मानव उसके होने का अहसास नहीं कर पाता, लेकिन वह होता है और यही सत्य है।” गुरु का यह ज्ञान सिर के ऊपर से निकल गया, लेकिन जानने की इच्छा प्रबल थी, सो फिर प्रश्न कर दिया। गुरु, बात कुछ पल्ले नहीं पड़ी। गुरु फिर दार्शनिक टाइप,बोले, बच्चा मैंने कहा न, तू अभी कच्चा है।

कुछ चीजें अनुभव से समझ में आती हैं, फिर भी तेरी जानने की इच्छा का ख्याल रखते हुए सहज भाषा में बता रहा हूं :-” इस संसार में सारा खेल गठजोड़ का है। गठजोड़, जोड़, जुगाड़, लकड़ी… जैसे इसके कई पर्यायवाची शब्द हैं। मूल भाव यह कि सारा खेल “लकड़ी” का है। तूने पुष्पा का जिक्र किया था न, इस फिल्म की कहानी में भी “लकड़ी” है।

लाल “चंदन की लकड़ी”। लकड़ी के बाजार में चंदन की लकड़ी बड़ी कीमती है। चंदन शीतलता प्रदान करता है। यही वजह है कि बड़े-बड़े लोग इसे अपने माथे, कंठ और हृदय से लगा कर रखते हैं। यह वर्षों पुरानी परंपरा है, आज भी इन्हीं परंपराओं का निर्वहन हो रहा है। चंदन का पेड़ जितना पुराना होता है, कंचन की तरह उतना कीमती होता जाता है। पेड़ में चाहे जितने सर्प लिपटे हों, लेकिन इससे चंदन की लकड़ी का महत्व कम नहीं होता।” गुरु बात को और आगे बढ़ाते, इससे पहले हाथ जोड़े, प्रणाम किया और निकल लिया। दिमाग में गुरु के शब्द कौंध रहे थे, लकड़ी, चंदन, कंठ, कंचन …।

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