गुरु यात्रा से लौटे थे। मिलने पहुंचा तो कमरे के बाहर रामचरितमानस की चौपाइयां सुनाई दे गईं। पता चला गुरु थकान मिटाने के बाद नहा-धोकर पूजा पर बैठ गए हैं। ध्यान लगाकर सुना तो शब्द बाबा तुलसी के थे। आवाज गुरु की थी। धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥ मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥ गुरु की साधना में व्यवधान का सवाल ही नहीं था।
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लिहाजा, इंतजार के लिए कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठ गया। पाठ खत्म कर गुरु प्रसन्न मुद्रा के साथ कक्ष में दाखिल हुए। आमना-सामना होते ही देश-दुनिया का हाल पूछ लिया। बोले- और बताइए पत्रकार महोदय! कैसा चल रहा है राजकाज? गुरु के इस एक सवाल में कई प्रश्न और उत्तर छिपे थे। बात आगे बढ़ाने के लिए उनके सवाल का जवाब देना था। लिहाजा दिया। वनांचल में सब ठीक है।
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आप राजधानी होकर लौटे हैं। कुछ नया हो तो बताएं। गुरु समझ गए कि उनके सामने बैठा शख्स कुछ बताने नहीं, जानने आया है। ऐसे में गुरु ने जिज्ञासा शांत करने का प्रबंध प्रारंभ किया। कहा- नया तो बहुत कुछ है। बस आप या तो देख-सुन नहीं रहे हैं या समझ नहीं रहे। बड़े-बूढ़े कह गए हैं- कृपा प्राप्ति में अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। जो जितना विनम्र होकर झुकता है, वह उतनी कृपा का अधिकारी बन जाता है।
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इन बातों को सुनकर बगैर किसी बहस के सरेंडर कर दिया। कहा- हां गुरु, सही कह रहे हैं। समझ नहीं आया होगा। गुरु बोले- बात दो कहानियों के जरिए समझो। इन दोनों कहानियों का भाव एक है। पटकथा और पात्र अलग हैं। एक समय की बात है। राजशाही के जमाने में एक सल्तनत ने एक रियासत पर हमला कर दिया। युद्ध बड़ा लंबा चला। रियासत के राजा ने आत्मसमर्पण नहीं किया। राजा की बहादुरी से सल्तनत का सम्राट बड़ा प्रभावित हुआ। कुछ समय गुजरने के बाद सम्राट राजा की रियासत में बतौर मेहमान पहुंचा।
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राजा ने बड़ी आवभगत की। राजा की अगवानी देखकर जनता दंग रह गई। आखिर यह क्या हुआ? दुश्मनी तो कहीं नजर नहीं आई। सारी आवभगत के बीच राजा ने एकांत में समय निकाल कर सम्राट से एक सवाल पूछा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा। अब दूसरी कहानी, एक राजा के दरबार में कई कारिंदे हुआ करते थे। हर कारिंदे को लगता था कि वह राजा का सबसे करीबी है।
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एक बार राजा को कुछ अतरंगी सूझी। उसने अपने दरबार के अधिकतर कारिंदों को इधर से उधर कर दिया। इनमें कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें राजा ने अभयदान दे रखा था। बाघ मारने जैसे संगीन अपराध में भी सजा नहीं हुई थी। कारिंदे को उम्मीद थी कि चाहे जो हो जाए, उस पर राजा की कृपा कम नहीं होगी, लेकिन हुआ ठीक उलटा। बगैर बीमारी के कारिंदे को चिकित्सालय में भर्ती करा दिया गया।
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संकटकाल समझ कर वह भी हरि भजन करने लगा। अक्सर उसके कमरे से तुलसी की चौपाइयां सुनाई दे जाती थीं। पंक्तियां यथावत थीं, अवगुन कवन नाथ मोहि …। कथा समाप्त हुई। गुरु मौन हो गए। गुरु के इस ज्ञान पर गंभीर मंथन की आवश्यकता थी। सो, हाथ जोड़कर कमरे से विदा लेने में ही भलाई थी।
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