टिप्पणी: डॉ क्षमा त्रिपाठी
एसोसिएट एडिटर, द फोटोन न्यूज
Media vs Social Media: लोकसभा चुनाव 2024 संपन्न हो गया। पूरे चुनाव में अगर नेताओं की राजनीतिक बयानबाजी के बाद सबसे अधिक किसी बात की चर्चा रही है तो वह मेन स्ट्रीम मीडिया बनाम सोशल मीडिया की। मेन स्ट्रीम मीडिया का एक बड़ा वर्ग मोदी सरकार के समर्थन में खुलकर खड़ा दिखाई दिया, वहीं सोशल मीडिया का बड़ा हिस्सा खुद को मोदी का सबसे बड़ा विरोधी साबित करने में जुटा रहा।
दोनों तरफ से चुनाव परिणाम के पहले अपने-अपने दावे किए गए। कोई 400 सीटों के साथ सरकार की वापसी की भविष्यवाणी कर रहा था। कोई हर हाल में सरकार की विदाई की तारीख बता रहा था। देश की जनता ने इस पूरी नूरा-कुश्ती के बीच अपना जनादेश सुना दिया। एनडीए बहुमत में आ गई।
भाजपा की अपेक्षा से कम सीटें रह गईं। अब पूरे परिणाम पर दोनों तरफ से अपने-अपने तरीके से सफाई पेश की जा रही है। सोशल मीडिया का एक बड़ा हिस्सा विपक्ष से कहीं अधिक इसे अपनी जीत बताने में जुटा हुआ है। मानो, भाजपा चुनाव हार गई है। इसके ठीक उलट मेन स्ट्रीम मीडिया का प्रयास है कि वह एग्जिट पोल करने वाली एजेंसी के माथे पर 400 सीट का ठीकरा फोड़कर अपनी साख बचा ले।
दरअसल, हकीकत कहीं इन दोनों के बीच छिपी है। इस चुनाव में मेन स्ट्रीम मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जनता से दूर होकर एसी और एआइ के जरिए जन-मन को समझने का प्रयास करता रहा। तकनीक पर निर्भरता को संवाददाता का विकल्प समझ लिया गया।
एजेंसी की गणना को रिपोर्टर की समझ से कहीं अधिक महत्व दिया गया। बड़े नेताओं के इंटरव्यू और हवाई जहाज में सफर को चुनावी कवरेज मान लिया गया। यही वजह रही है कि अधिकांश मीडिया हाउस परिणाम के दिन जमीनी सच से दूर खड़े नजर आए।
बात सोशल मीडिया की करें तो इसका एक बहुत बड़ा वर्ग केवल और केवल मोदी विरोध की बुनियाद पर ही टिका है। टीवी पर अपने मन के अनुसार की कहानी नहीं सुन पाने वाली जमात सच की तलाश में इंटरनेट की दुनिया में पहुंच रही है।
यहां व्यू, लाइक और सब्सक्राइव पाने की उम्मीद लिए बैठे कई पुराने मठाधीश वह सच परोसते हैं, जो टीवी में नहीं दिखाया जाता। बिना सत्यापित स्रोत के हर दिन नए-नए दावे किए जाते हैं। नई-नई कहानियां बनाई जाती हैं। जिन लोगों के बारे में दावे किए जाते हैं, उनसे पूछने या बयान लेने तक की हिम्मत नहीं जुटाई जाती।
मनगढ़ंत दावे को सूत्र की सूचना का हवाला देकर बिना किसी रोकथाम के जनता के सामने परोस दिया जाता है। अधिकांश लोग इसे सच भी मान लेते हैं।
इस बार लोकसभा चुनाव के कवरेज के दौरान भी यही हुआ। कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर कुछ कथित मीडिया एक्सपर्ट्स को ऑनलाइन जोड़कर मनभावन बयान दिलवाए गए। सीटों को लेकर तरह-तरह के दावे किए गए। कहा गया कि मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रहे। भाजपा की चौतरफा हार हो रही है। परिणाम दावे से बिल्कुल अलग रहे।
कई राज्यों में भाजपा ने विरोधियों को उखाड़ फेंका। कई जगह नए किले बना लिए। दो राज्यों में अपने बूते सरकार का गठन कर लिया। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू का राजनीतिक वनवास खत्म करा दिया। फिर भी कई सोशल मीडिया के बड़े नाम अपनी छाती चौड़ी किए घूम रहे हैं। मानो, उन्होंने राजनीतिक क्रांति ला दी।
चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद एक बार फिर फर्जी नैरेटिव गढ़ने का दौर शुरू हो गया है। वर्तमान में एनडीए गठबंधन के साथ खड़े दिखाई दे रहे नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। आरएसएस की सक्रियता को लेकर भी तरह-तरह के दावे किये जा रहे हैं।
मानो आरएसएस के लोग भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को दिये जाने वाले निर्देश की ईमेल सोशल मीडिया समूहों को सीसी कर रही हैं। मजेदार, पक्ष यह है कि एग्जिट पोल के फेल होने से सदमे में आये कई बड़े मीडिया हाउस भी सोशल मीडिया की फर्जी कहानी को ही अपने प्लेटफार्म पर दिखा और बता रहे हैं।
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