लोहे का यह शहर मिनी मुंबई के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहां भी देश के लगभग हर प्रांत के लोग बहुतायत में बसे हैं। उनकी भाषा-संस्कृति का उत्सव भी खूब देखने को मिलता है। इसी में एक ऐसा समाज भी है, जो यहां सबसे ज्यादा संख्या में होने का दावा करता है। यहां के पर्व-त्योहार में इस दावे की पुष्टि भी होती है। इसी समाज ने दो-तीन वर्ष से सालाना जलसा भी शुरू किया है। इसमें खास बात यह रही कि इस बार के आयोजन में समाज के मठाधीशों को किनारे लगा दिया, जो यह समझते थे कि उनके बिना समाज का कोई भी कार्यक्रम अधूरा रह जाएगा। इससे नई पीढ़ी में आत्मविश्वास भी आया कि वे अपने दम पर भी भव्य आयोजन कर सकते हैं। अब यह मत पूछिएगा कि उन मठाधीशों और उनके ईर्द-गिर्द मंडराने वालों पर क्या-क्या गुजर रही है।
क्यूं न दिखें धर्मभीरु
आज का राजनीतिक माहौल ही ऐसा हो गया है कि विशेष दल ही नहीं, आम दल के लोग भी खुद को धर्मभीरु दिखाने में लगे हैं। आप अपने आसपास भी देखते होंगे कि कार्यकर्ता अपनी ठेका-पत्ती के लिए भले ही किसी दबंग दल का कार्यकर्ता हो, दिखावे के लिए टीका-रोली, कलावा अवश्य धारण करता है। जो भी स्वरोजगार या किसी धंधे-पानी से जुड़ा है, वह किसी सामाजिक-धार्मिक संगठन से जुड़ जाता है, ताकि उस पर ऊपरवाले की छत्रछाया बनी रहे। पिछले दिनों की बात है, जब खबरनवीसों से रूबरू हुए विशेष दल के कुछ नेता अपने गले में ऐसा पट्टा डाल रखा था, जिससे उनके भोलेभक्त होने का अहसास स्पष्ट हो रहा था। देखने वालों को कुछ अजीब लगा, क्योंकि वे जिस दल के नुमाइंदे थे, पट्टे में पुष्प नजर नहीं दिख रहा था। उन्हें देखकर खुसुर-फुसुर होने लगी कि दाल में कुछ काला तो नहीं।
छूट के लिए बने रिफ्यूजी
इस देश में छूट या रेवड़ी संस्कृति सिर चढ़कर बोल रही है। आखिर हो भी क्यों न, जब इसी के दम पर सरकारें बन रही हैं। तो ऐसा ही कुछ घटनाक्रम अपनी लौहनगरी में चल रहा है। इसकी शुरुआत एक जनप्रतिनिधि ने पानी-बिजली के लिए लगने वाला शुल्क माफ कराने के साथ कर दी। हालांकि, शुल्क इतना कम था कि उस कॉलोनी में रहने वाला कोई एक व्यक्ति भी चुका सकता था, लेकिन जब माफी की घोषणा हुई तो पूरी कॉलोनी ने जनप्रतिनिधि की तारीफ के पुल-मीनार तक बांध दिए। पता चला कि वहां के कुछ लोग, जो पॉश इलाकों में रहते थे, अपना स्थायी पता नहीं बदलवा रहे हैं। यह और बात है कि उसी मोहल्ले का एक तबका, जो सालों से दो-जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है, मुंह ताकता रह गया। वे कह रहे हैं कि हमसे क्या भूल हुई।
पर्व-त्योहारों के मुखिया कौन
धर्म के ठेकेदार तो आपने बहुत सुने होंगे, लेकिन क्या कभी पर्व-त्योहारों के मुखिया के बारे में सुना है। लौहनगरी में इस तरह की संस्कृति सालों से फल-फूल रही है। हाल के वर्षों में दो-दो गुट बन जा रहे हैं, जिससे प्रशासन ही नहीं, आम जनता भी कन्फ्यूज हो जाती है कि आखिर अपने शहर में इतने बड़े पैमाने पर दुर्गापूजा, रामनवमी, छठ आदि कौन शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न कराता है। कोई तो होगा, जो सभी अखाड़ों-पंडालों का अभिभावक है। मजे की बात है कि दोनों गुट की बैठकों में संख्या दो-तिहाई या तीन-चौथाई रहती है। इससे और कन्फ्यूजन बढ़ जाता है कि वे कौन हैं, जो दोनों की बैठकों में नहीं जाते हैं। वे कौन हैं, जो मुखिया की परवाह नहीं करते हैं। मजे की बात है कि पब्लिक ही नहीं, प्रशासन भी संख्याबल देखकर कन्फ्यूज हो जाता है कि आख्रिर असली मुखिया कौन है।
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