हवा कई तरह की होती है, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा पछुआ और पुरवईया की होती है। लौहनगरी के सियासी अखाड़े में भी पछुआ और पुरवईया की ही धूम रही, भले कोल्हान के दर्जनों जगह पर कुर्सी का खेल चल रहा था। अब तो दोनों दिशाओं में शांति की ठंडी बयार बह रही है, लेकिन कब पछुआ और पुरवईया का जिन्न जाग जाए, कहना मुश्किल है। हाल ही की बात है, जब पुरवईया बयार शांत हो गई थी, अचानक पछुआ हवा ने पलट कर पूरब की ओर नजर फेर ली। फिर क्या था, अचानक पूरब में तपिश बढ़ गई। सबके कान खड़े हो गए। चाचा को भाई लोग रह-रह कर पूरब की याद दिला देते हैं, तो उनकी टीस भी कराहने लगती है। उन्हें क्या पता है कि दर्द उधर भी कम नहीं है। पछुआ हवा का विपरीत असर पुरवईया पर तो पड़ना स्वाभाविक है। कारण चाहे जो भी हो।
चार साल बाद दिखेंगे स्मार्ट नेताजी
भले ही कोई सालों भर नेतागिरी या समाजसेवा करता रहे, चुनाव में मलाई मारने वाले हवा का रुख जानते-पहचानते हैं। वे ठीक चार साल बाद ही अखाड़े का चक्कर लगाना शुरू करते हैं। उन्हें पता है कि चुनावी मुहूर्त के पहले आप कितना भी दिखावा कर लें, जनता आपको चौथे साल में नकारना शुरू कर देती है। पांचवें साल में पटखनी वही दे पाता है, जो जनता की नस अच्छी तरह दबाना जानता है। यही काम अपने स्मार्ट नेताजी ने करके दिखा दिया है। चार साल तक भारत भ्रमण करते रहे, उन्हें लोगों ने लगभग भुला दिया था, लेकिन चौथे साल में ऐसी एंट्री मारी कि पहले से मूंछ पर ताव दे रहे तथाकथित किनारे लग गए। कुछ ने तो ऐसी पटखनी खाई कि अब शायद दोबारा चुनावी चक्रम का नाम नहीं लेंगे। अपने स्मार्ट नेताजी अभी अज्ञातवास में हैं, चार साल बाद आएंगे।
पंजों में अकड़न या जकड़न
सियासी अखाड़े में भी वही पहलवान मैदान मारता है, जिसके पंजों में ताकत होती है। यहां तो पंजों में अकड़न है या जकड़न समझ में नहीं आ रहा है। पिछले पांच साल तक पैरों के बल रेंगने और फिर कूदने-फांदने के बाद जब उनके हाथ कुछ नहीं लगा, तो पैर तो थक ही गए, पंजों में भी जकड़न आ गई है। इससे ज्यादा ताजगी तो उन इलाकों में देखने को मिल रही है, जहां पंजे वाले निर्विकार भाव से राज-नीति की सेवा करके मेवा खाते रहते हैं। उनके पंजों की ताकत तब दिखती है, जब उनके बीच कोई बाहर से आभारी-प्रभारी पहुंच जाता है। उनके आते ही मुट्ठियां तन जाती हैं, चेहरे पर ऐसा प्रहार करते हैं कि देखने वाले की भी रुह कांप जाती है। वह भी कह उठता है, वाह भाई- पंजों में क्या ताकत थी, एक ही वार में लहूलुहान कर दिया।
भतीजा है कि हड़प्पा
आज तक किसी की सत्ता स्थायी नहीं रही, लेकिन लौहनगरी की धरती में कुछ ऐसे राज-नेता पैदा हुए हैं, जिनकी चर्चा बार-बार होती है। इसी तरह की राज-नीति चाचा-भतीजा की है, जिसे लोग युगों-युगों तक अवश्य याद रखेंगे। दोनों में कब कौन बीस पड़ जाएगा, कहना कठिन है। हाल ही की बात है, जब एक गड़े हुए शिलालेख में भी भतीजा का नाम खुदा हुआ मिला। चुनाव के पहले भतीजे ने जहां भी जगह खाली मिली, अपने नाम का बोर्ड लगा दिया। गली-गली अपने नाम के पत्थर लगा दिए थे। चुनाव से पहले डिवाइडर पर भी खुद को अमर कर दिया। इस क्षेत्र के हर उस डिब्बे पर नाम लिखवा दिया है, जो सालों-साल तक भतीजे को अमर करते रहेंगे। ऐसे ही एक डिब्बे पर चाचा की नजर पड़ी तो दांतों तले अंगुली दबा ली। यह क्या- जो दिख रहा था, वह काफी नहीं था क्या।
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