सेंट्रल डेस्क : झारखंड के हजारीबाग शहर से दिल को झकझोर देने वाली घटना सामने आई है। यहां के मशहूर सर्जन रहे डॉ. प्रेम दास के निधन ने एक बार फिर हमारे समाज में रिश्तों के महत्व और पारिवारिक संस्कारों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। 77 वर्षीय डॉ. प्रेम दास, जिनके इलाज से हजारों मरीज आज स्वस्थ और खुशहाल जीवन जी रहे हैं, की मौत के बाद उनकी संतान (बेटियों) का न आना एक हैरान कर देने वाली घटना बन गई। उनकी लाश मोर्चरी में 48 घंटे से ज्यादा पड़ी रही, क्योंकि उनके परिवार के सदस्य, जिनमें से एक बेटी अमेरिका और दूसरी मुंबई में रहती है, समय पर नहीं पहुंचे। अंततः उनकी पत्नी प्यारी सिन्हा और कुछ चिकित्सक साथियों ने समाजसेवी नीरज कुमार की मदद से उनका अंतिम संस्कार खिरगांव शमशान घाट पर किया।
यह मामला इसलिए ज्यादा सुर्खियों में है क्योंकि डॉ. प्रेम दास के निधन की खबर उनकी बेटियों को फोन पर दी गई थी, लेकिन फिर भी वे समय पर नहीं आईं। एक बेटी की बीमारी और दूसरी का अमेरिका में होना बताकर दोनों ने अंतिम संस्कार में शामिल होने से मना कर दिया। इसके साथ ही अन्य रिश्तेदार भी नहीं पहुंचे।
क्या पारिवारिक रिश्ते अब केवल नाम के रह गए हैं?
यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या अब हमारे समाज में पारिवारिक रिश्तों का कोई महत्व रह गया है। क्या समाज में रिश्तों की गर्माहट और आपसी संवेदनाओं का सारा मूल्य खत्म हो चुका है। क्या हमारे बच्चे अब सिर्फ अपने काम और परिवार में ही व्यस्त रहते हैं और बड़ों की देखभाल और अंतिम संस्कार जैसी जिम्मेदारियों से खुद को दूर कर लेते हैं।
सोशल मीडिया पर लोग इस घटना को लेकर गहरी चिंता और दुख व्यक्त कर रहे हैं। एक पोस्ट में लिखा गया है, ‘आजकल लोग खुद में ही सिमटते जा रहे हैं, रिश्तों में अब वो गर्मजोशी और संवेदनाएं नहीं रही। यही कारण है कि ऐसी घटनाएं बार-बार सामने आ रही हैं। जो बच्चे अपने माता-पिता को पालते हैं, उन्हें बड़ा करते हैं, क्या वे उस समय को भूल जाते हैं जब उनके माता-पिता को उनके सहारे की जरूरत होती है?’ यह घटना सिर्फ हजारीबाग तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के कई हिस्सों में ऐसी घटनाएं सामने आई हैं।
श्रीनाथ खंडेलवाल का मामला भी था इसी तरह का
इसी तरह की एक घटना कुछ महीने पहले वाराणसी में भी सामने आई थी। वाराणसी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीनाथ खंडेलवाल, जिन्होंने 400 से अधिक किताबें लिखीं, का निधन भी इसी तरह हुआ। उनकी संपत्ति पर उनके बच्चों ने कब्जा किया और उन्हें वृद्धाश्रम में रहने के लिए मजबूर कर दिया। जब उनका निधन हुआ, तो उनके बेटे-बेटी अंतिम संस्कार में भी नहीं पहुंचे। उनकी यह स्थिति समाज के लिए एक कड़ा सवाल खड़ा करती है कि क्या अब हम संवेदनाओं और पारिवारिक संबंधों को पूरी तरह से भूल चुके हैं?
क्या यह हमारे समाज का पतन है
इन घटनाओं ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या हमारा समाज अब संवेदनाओं और रिश्तों के बंधन से मुक्त हो गया है। क्या अब हम केवल एक मशीन की तरह काम करने वाले इंसान बन गए हैं, जिनके लिए परिवार और रिश्ते सिर्फ एक औपचारिकता रह गए हैं। जब समाज में इस तरह की घटनाएं लगातार सामने आती हैं, तो यह निश्चित रूप से सामाजिक ताने-बाने के टूटने और संवेदनाओं के खात्मे की ओर इशारा करती हैं।
समाज में रिश्तों की अहमियत को समझते हुए हमें यह समझने की आवश्यकता है कि बड़ों का सम्मान, उनकी देखभाल और अंतिम संस्कार जैसे पारिवारिक कर्तव्यों को निभाना हमारी जिम्मेदारी है। यह न केवल हमारी संस्कृति और संस्कारों का हिस्सा है, बल्कि हमारी मानवता और संवेदनाओं का भी परिचायक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दिन हम भी इस स्थिति का सामना करेंगे और उस समय हमारी संतानें वही करेंगी जो हम आज उनके लिए कर रहे हैं।
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