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हैरान कर देने वाला मामला : बेटे ने मां के खिलाफ कोर्ट में चुनौती दी, जज ने इसे ‘कलयुग’ की निशानी बताया

by Rakesh Pandey
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चंडीगढ़ : हाल ही में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में एक ऐसा मामला सामने आया, जिसने सबको हैरान कर दिया। एक बेटे ने अपनी 77 साल की मां को 5,000 रुपये भत्ता देने के फैसले को चुनौती दी, जिस पर कोर्ट ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। जस्टिस जसगुरप्रीत सिंह पुरी ने इस याचिका को खारिज करते हुए इसे ‘कलयुग’ का जीता-जागता उदाहरण बताया और बेटे पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया। इसके साथ ही कोर्ट ने आदेश दिया कि वह तीन महीने के भीतर यह राशि संगरूर के प्रधान जज, फैमिली कोर्ट में जमा करे।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक 77 वर्षीय महिला से संबंधित है, जिसके पति का 1992 में निधन हो गया था। महिला का एक बेटा और एक विवाहित बेटी हैं। उसका एक और बेटा था, जो अब जीवित नहीं है। महिला को उसके पति की मृत्यु के बाद 50 बीघा जमीन का हिस्सा मिला, जो उसके बेटे और मृत बेटे के बेटों को सौंप दिया गया था। 1993 में, महिला को अपने भरण-पोषण के लिए 1 लाख रुपये की राशि भत्ता के रूप में दी गई थी।

हालांकि, महिला के बेटे ने फैमिली कोर्ट में दायर एक याचिका के माध्यम से इस भत्ते की राशि को चुनौती दी, जिसमें उसने यह तर्क दिया कि चूंकि उसकी मां उसके साथ नहीं रहतीं, इसलिए फैमिली कोर्ट के इस आदेश को वह नहीं मानता।

कोर्ट का रुख और जज का कड़ा आदेश

महिला का पक्ष रखते हुए वकील ने दलील दी कि वृद्धा के पास आय का दूसरा स्रोत नहीं है और वह अपनी बेटी के सहारे जीवन यापन कर रही हैं। महिला के पास कोई और विकल्प नहीं था और यह स्थिति उसके लिए बेहद कठिन थी। कोर्ट ने इस मामले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि जब यह साबित हो चुका है कि महिला के पास आय का कोई स्रोत नहीं है, तो उसके बेटे को यह याचिका दायर करने का कोई अधिकार नहीं था।

हाई कोर्ट ने इस मामले को सुनने के बाद कहा कि यह मामला अदालत की अंतरात्मा को झकझोर देने वाला है। जज ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह याचिका ‘कलयुग’ का प्रतीक है, जहां एक बेटा अपनी 77 वर्षीय मां के खिलाफ अदालत में खड़ा हो गया है। 5,000 रुपये का भत्ता, जो उसकी मां के भरण-पोषण के लिए निर्धारित किया गया था, उस पर सवाल उठाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण था।

कोर्ट का आदेश और जुर्माना

कोर्ट ने इस मामले को खारिज करते हुए बेटे पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया और यह राशि तीन महीने के भीतर संगरूर के फैमिली कोर्ट में जमा करने का आदेश दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह की याचिका दायर करने से न केवल मां-बेटे के रिश्ते पर प्रतिकूल असर पड़ता है, बल्कि समाज में एक गलत संदेश भी जाता है।

समाज में रिश्तों की अहमियत

यह मामला एक गहरी सोच और चिंता का विषय बन गया है। अदालत ने इसे न केवल एक कानूनी दृष्टिकोण से, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी देखा। बेटे द्वारा अपनी मां के खिलाफ याचिका दायर करना रिश्तों के बीच बेजान होता हुआ विश्वास और सम्मान दर्शाता है। भारतीय समाज में, जहां मां-बेटे के रिश्ते को सर्वोपरि माना जाता है, वहां इस तरह के मामलों का होना सचमुच चिंताजनक है।

अंततः इस मामले ने कोर्ट को झकझोर दिया और यह साबित कर दिया कि रिश्तों में जब आस्था और विश्वास की कमी होती है, तो वह केवल कानूनी लड़ाई तक सीमित नहीं रहती, बल्कि समाज में एक नकारात्मक संदेश भी फैलाती है।

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