खबर बिल्कुल ‘टटका’ है। अखबारी भाषा में कहें तो छपते-छपते। झारखंड की राजधानी के नौकरशाही वाले मुहल्ले से सूचना आ रही है कि गंगा के घाट वाले भाई साहब ने ‘बाग’ में ‘निवास’ का मन बना लिया है। ‘गंज’ में गाज के बाद भाई साहब राम-राम करते राजधानी में आ बसे, लेकिन चंचल मन कभी ‘ऊंचे’ मुहल्ले में रमा नहीं। जैसे-तैसे कर मन को समझाया, लेकिन वह भला कहां मानने वाला। हर गुजरते दिन के साथ इच्छा प्रबल होती गई।
आखिर हो भी क्यों नहीं, भाई साहब का ‘गंज’ से प्रेम बड़ा प्रगाढ़ टाइप था। अगर बात दोहा-चौपाई में कहें तो बाबा सूरदास ने बहुत पहले रचा : ‘मेरो मन अनंत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै…। सो, सूरदास के शब्दों में ‘जहाज से उड़ा पक्षी फिर जहाज पर लौटने को विकल है’, बस पहुंचना कहीं और चाहता है।
यूं तो इन दिनों कई भक्त दाता से कृपा की आस लगाए बैठे हैं, लेकिन भाई साहब का नंबर बिल्कुल पहली कतार में है। दरअसल, भाई साहब की साधना सख्य भाव की है। सख्य भाव नवधा भक्ति का वह प्रकार, जिसमें ईष्ट देव को भक्त,अपना सखा मानकर उसकी उपासना करता है। भाई साहब को अपनी उपासना पद्धति पर पूरा भरोसा है। यही वजह है कि पूरे मनोयोग से मनचाहे वर की उम्मीद लगा बैठे हैं। हाल ही में सख्य भाव की भक्ति फलीभूत भी हुई है।
राजधानी की लीला किसी से छिपी नहीं है। अब नंबर भाई साहब का है। सूत्र तो यहां तक दावा कर रहे हैं कि भाई साहब ने दाता तक अपनी बात पहुंचा दी है। पहली अर्जी है ‘बाग’ में ‘निवास’, अगर कोई विघ्न-बाधा हो तो दूसरा ठिकाना ‘सराय’ में ‘राम’ को बसाना। बताने वाले यह भी बताते हैं कि भाई साहब ने अपना भाव पूरे अधिकार के साथ शाद अजीमाबादी के शेर के जरिए बयां किया है- तमन्नाओं में उलझाया गया हूं, खिलौने दे के बहलाया गया हूं…।
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