किसी शायर ने क्या खूब लिखा है : ‘बरसों सजाते रहे एक किरदार को हम, मगर कोई बाजी ले गया सूरत संवार कर..।’ झारखंड की नौकरशाही वाले मुहल्ले में इन दिनों हाल-ए-बयां कुछ ऐसा ही है। नौकरशाही की नई पीढ़ी के नवाचारी प्रयोग लगातार चर्चा में हैं। ‘नई पौध’ पुरानी पीढ़ी के सामने हर दिन नई मिसाल पेश कर रही है। आने वाली पीढ़ी इस द्वंद में है कि पुरातन को स्वीकार करे या नवीनता को अंगीकार। दरअसल, नई पीढ़ी जिस सहजता से ‘व्यवस्था’ को आत्मसात कर रही है, यह बात कई बार पुरानी पीढ़ी के आत्मसम्मान तक पहुंच जा रही है।
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माजरा जनपद की कमान के लिए चल रही साधना से जुड़ा है। कहानी का फ़लसफ़ा कुछ यूं है कि एक ऋषि-मनीषी ने पहले अभ्रक और फिर लौह नगरी में कठिन साधना की। वरदान स्वरूप, इन्हें पथरीली जमीन पर खेती का फल प्राप्त हुआ। कई दूसरे साधक भी वर की अपेक्षा में पूरे मनोयोग से जुटे थे, लेकिन कृपा नहीं हुई। निराश भाव से एक तपस्वी अपने गुरु के पास पहुंचे। पूछा- गुरु आखिर तपस्या में हमसे कहां चूक हो गई? हम तो पूर्व से साधना में लीन थे, फिर ऐसा भेदभाव क्यों? गुरु ने शिष्य के मनोभाव को समझते हुए आराधना पद्धति की विशद व्याख्या की। कहा- बच्चा, साधना वही सफल होती है, जो पूरे मनोयोग से की जाए।
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मन की एकाग्रता चित को स्थिर करने का सर्वाधिक लोकप्रिय और आसान तरीका है। इसके लिए योग्य गुरु का होना अनिवार्य शर्त है। जिन साधक की साधना सफल होने से तुम्हें ईष्या हो रही है, वह बहुत पहुंचे हुए गुरु के शिष्य रहे हैं। इनके गुरु ‘आदित्य’ की तरह तेजवान हैं। लिहाजा शिष्य की साधना में वह चमक विद्यमान है। साधक ने दीक्षा ग्रहण करने के साथ ही अपने गुरु के सिद्धांत का अनुसरण किया।
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यज्ञ आदि के लिए जरूरी सामग्री का प्रबंध पहले ही कर लिया। यही कारण रहा कि हवन-पूजन की प्रक्रिया पूर्ण करने में उन्हें विलंब नहीं हुआ। दूसरे साधक जहां पुष्प, बेल और दूध का इंतजाम करने में व्यस्त रहे। वहीं इस साधक ने सबकुछ अर्पण कर वरदान की कामना जाहिर कर दी। कहते हैं कलयुग में नामजप से ही अमोघ फल की प्राप्ति संभव है। इस साधक ने तो साधना को उच्च मापदंड पर पहुंचा दिया। ऐसे में फल तो प्राप्त होना ही था।
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