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अभी हाल ही में विश्व समुदाय ने गौरैया (sparrow) को समर्पित एक पूरा दिन बिताया, ताकि चहचहाने वाली मानव संगी नन्ही जान को संरक्षित किया जा सके, ताकि उसकी चहचहाट हमेशा हमारे आस-पास बनी रहे। पिछले दशक में गोरैया की घटती संख्या ने आमजन का ध्यान आकर्षित किया और साल 2010 से हर साल 20 मार्च को गौरैया दिवस मनाया जाने लगा।
गौरैया शुरू से ही मानव सभ्यता के इर्द-गिर्द रची-बसी चिड़िया है, तभी तो मानव के विस्तार के साथ ही यह सबसे ज्यादा संख्या में पायी जाने वाली पक्षियों में एक है, जो अंटार्कटिका,के सिवा हर महाद्वीप में पायी जाती है। भारतीय संस्कृति में गौरैया को शुभ, साहस और खुले सोच का प्रतीक माना गया है। ताउम्र पक्षियों के संरक्षण के लिए काम करने वाले सालीम अली ने अपनी जीवनी ‘एक गौरैया का गिरना’ नाम से ही लिखा। गौरैया को बिहार और दिल्ली में राजकीय पक्षी का दर्जा प्राप्त है, हालांकि दिल्ली में राजकीय पक्षी का दर्जा पिछले दशक गौरैया की संख्या में लगातार हो रही गिरावट के मद्देनज़र जागरूकता बढाने के उद्देश्य से दिया गया।
अक्सर गौरैया को मानव बस्तियों के आस-पास ही फलते-फूलते देखा जाता है, चाहे वह शहरी क्षेत्र हो, जंगल हो, या ग्रामीण बस्तियां। इतनी ज़्यादा तादाद और लगभग पृथ्वी के हर कोने में पायी जाने वाली गोरैया की कहानी भी मानव विकास के जैसी ही काफी रोचक है। गौरैया के विकास के बारे में हाल तक जानकारी ही नहीं थी, शायद यह इतनी आम चिड़िया है कि किसी का इस पर ध्यान ही नहीं गया। मूल रूप से गौरैया मध्य-पूर्व की पंछी है, जहां से यह मानव बस्तियों के फैलाव के साथ-साथ पूरे एशिया और यूरोप में फैलती चली गयी।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में यूरोपियन औपनिवेशिक प्रसार के साथ अमेरिका (साल 1852 में), ऑस्ट्रेलिया (साल 1963 में) और विषुवतीय द्वीपों (साल 1859 न्यूजीलैंड में) में गोरैया को आबाद किया गया। एक तरह से कहे तो गोरैया का वैश्विक प्रसार ब्रिटेन के फैले उपनिवेश के मानचित्र सरीखा ही है।
घरेलू गौरैया स्पष्ट रूप से मानव आधारित पारिस्थितिकी में ही रहती है। ऐसा भी देखा गया है कि गोरैया छोड़ दी गई बस्तियों में स्थानीय रूप से विलुप्त हो जाती है। वहीं, घरेलू गौरैया की एक संबंधी प्रवासी बैक्ट्रियानस गौरैया है।
इसका बाह्य रूप-रंग घरेलू गौरैया की तरह ही है, लेकिन वह पूर्णतया जंगली है, जो मानव संपर्क से दूर नदी किनारे, घास के मैदानों और झाड़ियों में पायी जाती है। एक तरफ मुख्य रूप से घरेलू गौरैया जो फसलों के बड़े-बड़े अनाज खाती है, तो दूसरी तरफ बैक्ट्रियानस गौरैया जंगली घास के छोटे-छोटे बीज खाती हैं। गौरैया के विकास को समझने के लिए रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन में छपे एक शोध के मुताबिक घरेलू और बैक्ट्रियानस गौरैया में असामान्य रूप से सिर और चोंच के आकार में बदलाव के साथ कार्बोहाइड्रेट पचाने वाली जीन का फर्क पाया गया, जिसके आधार पर घरेलू गौरैया और मानव विकास की कड़ी को कृषि के विकास साथ जोड़ कर समझा जा सकता है।
कृषि के विकास के साथ मानव आधारित एक ऐसी पारिस्थितिकी तंत्र का विकास हुआ, जिसमें आसानी से खाने की उपलब्धता से अनेक जानवरों जैसे चूहा, जूं और गौरैया को आश्रय मिलता रहा। ऐसी प्रजातियां संभवत: मानव आवास के आस-पास रहते हुए एक मानव-अवलंबी आश्रित संबंध में समायोजित हो गईं, जो पालतू प्रजातियों से भिन्न होती हैं। बैक्ट्रियानस गौरैया की एक शाखा कृषि विकास के साथ मानव बस्तियों के आस-पास रहने लगी, जहां उन्हें आसानी से जंगली घास के छोटे-छोटे बीज के मुकाबले अनाज के बड़े-बड़े दाने सालो भर मिलने लगे, जिसे खाने और पचाने के लिए जंगली गौरैया में नए तरह का अनुकूलन हुआ, जो कि बैक्ट्रियानस गौरैया से इतर घरेलू गौरैया में पाए गए दो उपरोक्त जीन के रूप में सामने आई।
अनाज के मजबूत बीज के आवरण को तोड़ने के लिए घरेलू गौरैया में मजबूत चोंच और मस्तिष्क का विकास हुआ। वही घरेलू गौरैया में कार्बोहाईड्रेट से भरे अनाज के बीज को पचाने के लिए भी क्षमता का ठीक वैसे ही विकास हुआ जैसे मनुष्य और कुत्ते में हुआ, जो घरेलू गौरैया की ही तरह मनुष्य आधारित पारिस्थितिकी में कृषि के विकास के साथ हुए खान-पान में बदलाव के लिए अनुकूलित हुआ।
घरेलू गौरैया के डीएनए और जीवाश्म अध्ययन से स्पष्ट है कि मध्य-पूर्व में कृषि के विकास के साथ ही गौरैया के एक जंगली पूर्वज से घरेलू गौरैया का क्रमिक विकास हुआ। जैसे-जैसे एशिया और यूरोप में कृषि और मानव विस्तार हुए घरेलू गौरैया भी नए-नए क्षेत्रों में बसती चली गयी। इस प्रकार गौरैया शायद पिछले दस हजार सालों से हमारे मानव-संस्कृति और सभ्यता की सहचरी बनी रही। पर पिछले कुछ दशक में घरेलू गौरैया संकट में है और इसकी शुरुआत पिछली सदी के मध्य में चीन से माना जा सकता है। घरेलू गौरैया खान-पान के लिए खेत और घर के अनाज पर निर्भर होती हैं, जिसे अक्सर गौरैया के पारिस्थितिकी में योगदान को दरकिनार कर परजीवी समझ लिया जाता है।
माओ शासित चीन के ‘ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड’ अभियान के तहत् 1958 में खाद्य सुरक्षा और फसलों की बर्बादी रोकने के नाम पर चूहा, मक्खी, मच्छर और गौरैया के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया गया, जिसमें गौरैया को अत्यंत ख़तरनाक जीव के रूप में पेश किया गया। माओ की जीवनी ‘माओ ए लाइफ़’ के मुताबिक, “माओ का निष्कर्ष था कि एक गौरैया एक साल में चार किलो तक अनाज खा जाती है, इसलिए चीनी नागरिकों का पेट भरने के लिए गौरैया का मारा जाना बहुत ज़रूरी है।” इस प्रकार जन-सहभागिता से चीन की लगभग सारी गौरैया मार डाली गई, जिसकी परिणति ‘ग्रेट चाइनीज़ फेमीन’ (1959-1961) से हुई, जिसमें कम से कम पांच करोड़ लोग भूख से मर गए। जल्दी ही माओ ने भूल सुधार की और सोवियत संघ से ढाई लाख गौरैयों की खेप मंगवाई, ताकि नन्हीं गौरैया टिड्डियों को बड़ा होने से पहले खाकर फ़सलों को बचाए।
चीन की महान मूर्खता के इतर आज गौरैया मानव रहवास और जीवन-यापन में आ रहे आमूलचूल बदलाव, आधुनिक खेती, प्रकाश, ध्वनि, जल, वायु प्रदूषण और शायद मोबाइल टावर के विकिरण के चौतरफा संकट की शिकार है। हजारों सालों में गौरैया मानव बस्ती के आसपास रहने की इस कदर आदि हो चुकी है कि मानव रिहाइश के इतर गुजारा संभव ही नहीं है। हमेशा से ही गौरैया हमारी दिनचर्या के बेहद क़रीब, एक आत्मीय उपस्थिति जैसी रही है। बेतरतीब शहरीकरण, अंध-औद्योगीकरण और संचार क्रांति के इस पागल दौर में गौरैया अब बहुत कम ही दिखती है, कराची, लाहौर, दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में तो बिल्कुल ना के बराबर। छोटे कस्बों और गांवों में जब कहीं दिखती है तो अपनी चहचहाहट से एक प्यारा-सा एक संगीत छोड़ जाती है। गौरैया ने हमारी संस्कृति को समृद्ध किया बदले में हमने उसके जीव विज्ञान और उसके विकास क्रम को ही बदल दिया, ऐसे में जरुरत है कि मानव विकास की सबसे नजदीक की लाभदायक सहचरी रही गौरैया को इस अंधविकास और आधुनिक जीवन शैली की भेंट चढ़ने से बचाया जाए।

डॉ कुशाग्र राजेन्द्र
एसोसियट प्रोफेसर,एमेटी विश्वविद्यालय गुरुग्राम, हरियाणा