बोकारो/चंदनकियारी झारखंड के बोकारो जिले में एक गांव है माचाटांड़। साधारण-सा दिखने वाला यह गांव असाधारण कहानियों से भरा पड़ा है। कोई गांव यूं ही “रेलकर्मियों का गांव” नहीं कहलाता। यहां की मिट्टी में कुछ तो खास है, तभी तो हर घर से एक नहीं, दो नहीं… बल्कि कई-कई सदस्य भारतीय रेलवे की सेवा में हैं। इस गांव के हर कोने में गूंजती है सीटी की आवाज़, पहियों की रफ्तार और गर्व से उठे हुए सिरों की गाथा!
हर घर में सरकारी नौकरी, हर परिवार में रेलकर्मी
करीब 1200 की आबादी वाला कुड़मी बहुल यह गांव चंदनकियारी प्रखंड में स्थित है। माचाटांड़ गांव अब तक डेढ़ सौ से अधिक रेलकर्मियों को देश की सेवा में भेज चुका है। और अगर इसके पड़ोसी गांव अलुवारा को भी जोड़ दिया जाए, तो यह आंकड़ा 200 के पार पहुंच जाता है। एक समय ये दोनों गांव एक ही पंचायत का हिस्सा थे, पर अब माचाटांड़ ‘नयावन पंचायत’ में है और अलुवारा ‘बाटबिनोर पंचायत’ में आता है।
एक घर, कई अफसर – रेलवे की परंपरा
यहां के कई परिवारों की कहानियां किसी फिल्मी स्क्रिप्ट से कम नहीं।
रतनलाल महतो के परिवार में ही छह सदस्य रेलवे की सेवा में रहे – खुद रतनलाल, उनके तीन भाई शोभाराम, जोधाराम और श्रीपति महतो और श्रीपति के दो पुत्र सुभाष और कन्हाई महतो।
खेदूराम महतो के परिवार से भी पांच सदस्य रेलवे में हैं – उनके दो बेटे मागाराम व जगाराम और उनके पोते शत्रुघ्न, भरत और भतीजा वीरेंद्र किशोर।
खेलाराम महतो का परिवार भी पीछे नहीं – वे खुद, उनके बेटे रामेश्वर, पोते मिहिर और उनके भाई बीरू व बीरू के बेटे गुलुचरण महतो सभी रेलकर्मी रह चुके हैं।
परंपरा जो थमी नहीं…
रेघु महतो और उनके दोनों पुत्र विसु व नीलकंठ रेलवे में रहे हैं। नीलकंठ के बेटे सुभाष भी अब इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
सुचांद महतो के दोनों पुत्र राखोहरी व विनोद महतो, पांचू महतो के परिवार में मधु महतो और भुटी महटाइन (पुत्रवधू) तक रेलवे में सेवा दे चुके हैं।
एक पूरा गांव, एक ही मिशन – रेलवे सेवा
गांव के हर गली-मोहल्ले से ऐसे नाम निकलते हैं जो रेलवे की नौकरी से जुड़ चुके हैं –
शोभाराम महतो, गोपाल महतो और उनका बेटा महादेव, मुरलीधर व जगरनाथ कर्मकार, परीक्षित कर्मकार, चक्रधर और धरमुदास महतो, भोजू और मथुर महतो, मोहन और अनिल महतो, तुलसी महतो, गोकुल और हरिकृष्ण महतो, जगेश्वर व तपेश्वर महतो, लक्ष्मण और सुरेश, बैजू और बनमाली, सुरेंद्र और नान्हू, भूखल और गाजू महतो – ये सभी नाम इस गांव की गाथा में दर्ज हैं।
झारखंड का माचाटांड़ – प्रेरणा का प्रतीक
सरकारी नौकरी का सपना देखने वालों के लिए माचाटांड़ एक आदर्श है। ये गांव बताता है कि यदि परिवार, समाज और शिक्षा का माहौल सही हो, तो एक ही गांव से सैकड़ों सरकारी कर्मचारी निकल सकते हैं। यहां रेलवे सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि परंपरा, पहचान और गौरव है।
माचाटांड़ – नाम नहीं, मिशाल है!
यह गांव सिर्फ बोकारो या झारखंड के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए मिसाल है। आज जब नौकरियों की होड़ में युवा भटक रहे हैं, माचाटांड़ जैसे गांव साबित करते हैं कि अनुशासन, शिक्षा और परिवार के समर्थन से सरकारी नौकरी कोई दूर की बात नहीं।
यह माचाटांड़ है – जहां हर घर की दीवार पर टंगी है रेलवे की टोपी, और हर दिल में बसी है गर्व की सीटी!