अपने यहां मौका कोई भी सियासी दल के नेता-कार्यकर्ता घाट बनाने और घाट बचाने में जुट जाते हैं। घाट कैसा है यानी, किस लेवल का है, नेताजी का फोकस उसी बात पर रहता है। कहीं ऐसा न हो कि गलत घाट पर पहुंच जाएं, तो पता चलेगा कि मेहनत भी किया, टाइम भी दिया और कुछ हासिल भी नहीं हुआ। सामान्य जानकारी के लिए बता दें कि घाट कई शब्दों का पर्याववाची है। इसका अर्थ काल और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। आमतौर पर घाट का नजारा रविवार शाम और सोमवार की सुबह में विहंगम दिखेगा। लेकिन, हम बात कर रहे हैं, उन नेताओं-कार्यकर्ताओं की, जो मौका देखकर चौका मारने में दिमाग लगाते हैं। लिहाजा, सियासी दलों की मौजूदगी शाम और सुबह में भी दिखेगी। वैसे तो दो-तीन दिन से घाट बैठाने में विभिन्न दलों के नेता-कार्यकर्ता सक्रिय हैं, फल-सूप बांटने की होड़ सी मची थी।
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अब अंदर रहेगा कक्षपाल
पिछले दिनों एक खबर आई कि जेल का कक्षपाल अंदर चला गया। वह भी लानत-मलामत के बाद। यह तो होना ही था, इज्जत के साथ बहुत कम लोग ही अंदर जाते हैं। उसने काम ही ऐसा घिनौना किया था कि उसे पब्लिक से लात-घूंसों और गंदी-गंदी गालियों के साथ अंदर भेजा गया। कुछ लोगों ने बताया कि अब तक वह जेल के बाहर संविदा पर कक्षपाल के रूप में नियुक्त हुआ था। जाहिर सी बात है कि उसके मन भी स्थायी रूप से जेल में रहने की इच्छा जगी होगी। बंदियों की कहानी सुन-सुनकर उसके मन में भी आइडिया आया होगा कि मुझे भी कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे मैं यहां स्थायी रूप से रह सकूं। सो, बाहर आकर उसने कांड कर दिया। शायद उसकी इच्छा पूरी हो गई होगी। यदि कुछ कसर अब भी बची होगी, तो वह इच्छा अंदर रह कर पूरी हो जाएगी।
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शक्ति-टैक्स लागू
आमतौर पर चुनाव के समय हर दल और उम्मीदवार का फोकस शक्ति प्रदर्शन पर रहता है। किसी न किसी बहाने वह यह दिखाना चाहता है कि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के मुकाबले न केवल संख्या बल ज्यादा है, बल्कि धन-बल भी है। ऐसा करके वे बाकी बचे वोटरों को यह जताना और बताना चाहते हैं कि मुझे वोट देकर विजयी बनाया, तो इतनी संख्या और धन के साथ मैं किसी के सामने खड़ा रह सकता हूं। लेकिन, भूतो न भविष्यति की तर्ज पर जिला प्रशासन की कुदृष्टि पड़ गई और शक्ति-टैक्स लगा दिया। एक तो अनुकंपा वाले शिकार बने, दूसरे शोर मचाने वाले नेता के शागिर्द निकले। दोनों ने अलग-अलग तरीके से चुनाव प्रचार में शक्ति प्रदर्शन किया। यह दुर्घटना ऐसे समय हो गई, जब चुनाव प्रचार ढंग से शुरू भी नहीं हुआ था। यानी, सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। अब दूसरे उम्मीदवार प्लान-बी बनाने में जुट गए हैं।
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हाथी के दांत वाली योजना
बड़ी मशहूर कहावत है- हाथी के दांत दिखाने के होते हैं, खाने के नहीं। यह कहावत हमारे सूबे के नेता-अधिकारी के मन में गहरे बैठ गई है। यदि ऐसा नहीं होता तो कुछ योजनाएं ऐसी सामने आ रही हैं, जो इस कहावत पर फिट बैठ रही हैं। हाल ही में पता चला कि एक जलमीनार इसी कहावत को चरितार्थ करने के लिए बनाई गई थी। यह जलमीनार मानगोवासियों की प्यास बुझाने के लिए नहीं हलक सुखाने के लिए बनी थी। इससे उतने देर तक ही पानी बहा था, जब तक नारियल फूटने के बाद सूख नहीं गया। उद्घाटन के बाद दूसरे दिन से यह बीमार पड़ गया। इससे एक फायदा तो यह हुआ कि उस जलमीनार का मेनटेनेंस करने की आवश्यकता नहीं होगी। हां, मोटर आदि भी खराब नहीं हुए होंगे। एक बार फिर उद्घाटन हो जाएगा। दूध फैक्ट्री का शिलान्यास तीन बार हुआ न।
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