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सांस्कृतिक परम्परा और पर्यटन का समागम डलहौज़ी

by Rakesh Pandey
सांस्कृतिक परम्परा और पर्यटन का समागम डलहौज़ी
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हिमाचल की सबसे ख़ास जगहों में शुमार डलहौज़ी देश का एक जाना माना पर्यटन स्थल है। जिसकी वजह से घूमने टहलने की इच्छा रखने वाला हर व्यक्ति इस जगह पर आना और अपनी छुट्टियां बिताना चाहता है। इस जगह पर पूरे साल पर्यटकों की आवाजाही रहती है। यहां पर देश दुनिया के कोने कोने से लोग आते हैं। यह जगह अपनी शांत सुंदर वादियों, प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा और पर्यटन स्थलों की वजह से पूरी दुनिया में मशहूर है।

इस जगह के बारे में मुझे पहले से पता था पर कभी जाना नहीं हो पाया था। इसलिए सोचा क्यों ना इस बार हम डलहौज़ी ही घूम आएं। फिर क्या था मैंने अपना बैकपैक तैयार किया और सड़क मार्ग से होते हुए डलहौजी पहुंच गए। इस जगह पर रेलमार्ग अथवा हवाई मार्ग से भी आया जा सकता है।

आप भी अगर इस जगह पर जाना चाहते हैं तो आपको बता दूँ कि डलहौज़ी पहुँचना काफ़ी आसान है। इस जगह पर आप अपनी सुविधानुसार सड़क मार्ग, रेलमार्ग अथवां हवाई मार्ग का विकल्प चुन सकते हैं। यह सड़क मार्ग से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। इस जगह पर पहुंचने के लिए नज़दीकी रेलवे स्टेशन पठानकोट और हवाई अड्डा काँगड़ा है।

डलहौजी घूमने के लिए सही समय की बात की जाए तो इस जगह पर वैसे तो कभी भी जा सकते हैं परंतु जनवरी से मार्च तक का महीना सबसे सही रहता है। इस समय यहाँ पर चारो तरफ़ बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई देती है। पूरा दृश्य ऐसा लगता है कि किसी ने पूरे पहाड़ पर सफेद चादर बिछा दिया हो। आसपास की चोटियां और पहाड़ बहुत ही मनोरम दिखाई देते हैं।

इस जगह पर घूमने और देखने के लिए काफी कुछ है। साथ ही साथ रहने और खाने पीने के लिए होटल और रेस्टोरेंट की भी बहुत अच्छी सुविधा है, लेकिन हमारी इच्छा किसी होमस्टे में रुकने की थी क्योंकि हमें स्थानीय खानपान और संस्कृति को जानना समझना था इच्छानुरूप हमें गांव में ही एक घर मिल भी गया।

सबसे पहले हमने घूमने की जगहों के बारे में पता किया फिर ब्रेकफास्ट करके अनजान पहाड़ी रास्तों के सफर पर निकल गए। पहाड़ी रास्तों की सबसे खास बात यह कि ये हमें भटकने और खुद में खो जाने का मौका देते हैं। हम भी चलते चलते उन्हीं पहाड़ी रास्तों और खुबसूरत वादियों के बीच खो गए। हरे भरे पेड़ पौधे, तरह तरह के जीव जंतु व खूबसूरत मौसम और भला एक यात्री को क्या ही चाहिए।

हम आपको बता दें कि इस जगह की स्थापना ब्रिटिश गवर्नर लार्ड डलहौज़ी ने 1854 में किया था ताकि वह यहाँ की शांत सुन्दर वादियों में अच्छा समय व्यतीत कर सके। धीरे धीरे यह जगह अपने खूबसूरत मौसम और भौगोलिक स्थिति की वजह से प्रसिद्धि पाती गई। इस वजह से अन्य ब्रिटिश अधिकारी भी अपनी छुट्टियाँ बिताने के लिए यहां आने लगे साथ ही इसका आकर्षण बढ़ता ही गया।

यह जगह उस समय से भी कहीं ज़्यादा आज फेमस है। यहां पहुँचकर हमारा परिचय जिस पर्यटन स्थल से हुआ वह है खाज्जिअर।

आपको बता दूँ कि जितना फ़ेमस डलहौज़ी है उतना ही कहीं खाज्जिअर, इसीलिए जो लोग भी डलहौज़ी घूमने आते हैं उनका अगला पड़ाव खाज्जिअर होता है और हो भी क्यों नहीं जब यह जगह डलहौजी से महज़ बाइस किमी की दूरी पर स्थित है। हम पहले दिन डलहौजी की संस्कृति और खानपान को एक्सप्लोर करने के पश्चात खाज्जिअर घूमने के लिए निकल पड़े।

डलहौज़ी से खाज्जिअर तक जाने का रास्ता बहुत ही ख़ूबसूरत और विविधतापूर्ण है। इस रास्ते की ख़ूबसूरती में हम इस क़दर खो गए कि कब खाज्जिअर आ गया हमें पता भी नहीं चला। खाज्जिअर में हमारा सबसे पहला परिचय खाज्जिअर झील और खज्जी नाग मंदिर से हुआ। यह दोनों ही जगहें मुझे काफ़ी अच्छी लगीं। लोग कहते हैं कि इस जगह पर आकर इन दो जगहों को नहीं देखा तो कुछ भी नहीं देखा। हमें भी यह जगह काफी अच्छी लगी। अंत में हमारी इच्छा इस जगह पर मौजूद गोल्फ कोर्स देखने की हुई तो फिर हम गोल्फ़ कोर्स भी गए जहां बहुत ही मज़ा आया।

हम एक दिन खाज्जिअर में ही ठहरे और उसके बाद हमने वापस डलहौज़ी की तरफ़ अपना रूख किया और डैनकुंड पीक देखने गए। डैनकुंड पीक को कुछ लोग सिंगिंग हिल के नाम से भी जानते हैं। इस पीक से आसपास का दृश्य बहुत ही खूबसूरत नजर आता है।

इस जगह से एलओसी की दूरी महज़ दस किमी है और सिंगिंग हिल की ऊँचाई समुन्द्र तल से 2750 मीटर है इसलिए इस चोटी को एलओसी का उच्चतम शिखर भी कहा जाता है। इस चोटी पर पहुँचकर आसपास की जगहों की ख़ूबसूरत को हम देर तक निहारते रहे। कुछ लोगों ने हमें कलातोप वन्यजीवन अभयारण्य देखने का भी सुझाव दिया क्योंकि यह जगह गाँधी चौक से भी नज़दीक है।

मैंने इस जगह के बारे में पहले से सुन रखा था इसलिए कलातोप वन्यजीवन अभयारण्य जैसी जगह पर जाने से खुदको नहीं रोक सका। बीस किमी के दायरे में फैले इस अभयारण्य में हमने तरह तरह के जीव और वनस्पतियाँ देखीं और देवदार के ऊँचे और घने जंगलों से घिरी इस जगह की ख़ूबसूरती को पहरों तक निहारते रहे।

सांस्कृतिक परम्परा और पर्यटन का समागम डलहौज़ी

इस जगह से एलओसी की दूरी महज़ छह किमी ही रह जाती है, जो लोग इस जगह पर आते हैं उनके मन में एलओसी देखने की भी ग़ज़ब की चाह रहती है। हमारी भी कुछ ऐसी ही चाह थी लेकिन हम समय के अभाव के चलते नहीं जा सके। शाम हो गई और हम अपने होमस्टे लौट आए।

हमारे पास अब बस एक और दिन बचा था। अपनी डलहौजी यात्रा के आखिरी दिन हम पंचपुला, संत जॉन चर्च, चमेरा झील भी देखने के लिए गए। यह सभी जगहें घूमने और छुट्टियां व्यतीत करने के लिहाज से मुझे काफी अच्छी लगी और मैंने खूब लुत्फ उठाया। सही मायने में डलहौज़ी और खाज्जिअर को घूमने और देखने का जो अनुभव हुआ वह हमेशा के लिए हमारी स्मृतियों में शामिल हो गया।

 

संजय शेफर्ड

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