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Tribute To Sharda Sinha : शारदा सिन्हा की संघर्ष और संगीत यात्रा : सास के विरोध से छठ गीतों तक

शारदा सिन्हा का जन्म 8 भाइयों के बीच हुआ था और वे अपनी मां की इकलौती बेटी थीं। एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उनके जन्म से पहले कई दशकों तक घर में कोई बेटी नहीं हुई थी।

by Rakesh Pandey
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पटना : बिहार की मशहूर फोक सिंगर शारदा सिन्हा का निधन 5 नवंबर 2024 को दिल्ली स्थित AIIMS में हुआ। उनके बेटे ने इस दुखद समाचार को साझा करते हुए कहा कि मां अब हमारे बीच शारीरिक रूप से नहीं हैं, लेकिन उनका आशीर्वाद और प्रार्थनाएं हमेशा हमारे साथ रहेंगी। शारदा सिन्हा की संगीत यात्रा भी उतनी ही दिलचस्प और प्रेरणादायक रही है, जितनी उनकी जिंदगी। उन्होंने अपनी पहचान छठ गीतों के माध्यम से बनाई, लेकिन उनका ये सफर इतना आसान नहीं था। आइए जानते हैं, कैसे एक आम लड़की से शारदा सिन्हा फोक संगीत की मिसाल बनीं

‘मन्नतों के बाद जन्मी इकलौती बेटी’

शारदा सिन्हा का जन्म 8 भाइयों के बीच हुआ था और वे अपनी मां की इकलौती बेटी थीं। एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि उनके जन्म से पहले कई दशकों तक घर में कोई बेटी नहीं हुई थी। उनकी मां ने भगवान से मन्नतें मांगी थी, तब जाकर शारदा का जन्म हुआ। घर में उनके लिए विशेष पूजा अर्चना की जाती थी और उनकी मां ने उनके लिए कोसी (छठ का एक विधान) भी किया था।

पहला गीत और गाने की शुरुआत

शारदा सिन्हा ने अपना पहला गीत अपनी शादी में गाया था। उन्होंने अपने भैया के कोहबर द्वार छेकाई पर गाया था ‘द्वार के छिकाई नेग पहले चुकैओ, हे दुलरुआ भैया, तब जहिया कोहबर आपन’। यह गीत न केवल शादी की रस्म का हिस्सा था, बल्कि शारदा के गाने की शुरुआत भी थी।

ससुराल में संगीत का विरोध

शारदा सिन्हा का विवाह 1970 में बेगूसराय के एक गांव में स्व. ब्रजकिशोर सिन्हा से हुआ था, जहां उनका माहौल पूरी तरह से नया था। शुरू-शुरू में उनकी सास को यह पसंद नहीं आया कि उनकी बहू गाना गाए। सास के विरोध के बावजूद शारदा ने संगीत को अपनी पहचान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष किया। एक दिन गांव के मुखिया ने उनके ससुर से कहा कि उनकी बहू बहुत अच्छा गाती हैं, तो क्या वो ठाकुरबारी में भजन गा सकती हैं? ससुर ने अनुमति दे दी, लेकिन शारदा की सास को यह कतई पसंद नहीं आया।

सास के विरोध के बावजूद संगीत की राह पर


शारदा ने बिना सास से कुछ कहे अपने ससुर के पीछे-पीछे ठाकुरबारी में भजन गाने का फैसला किया। उन्होंने ‘मोहे रघुवर की सुधि आई’ भजन गाया और इस दौरान सास इतनी नाराज हुईं कि दो दिन तक खाना नहीं खाया। हालांकि, धीरे-धीरे सास का विरोध कम हुआ और शारदा को गाने की पूरी छूट मिल गई।

छठ गीतों की शुरुआत

शारदा सिन्हा का दिल हमेशा छठ के गीतों में बसा था। बचपन में उन्हें अपने घर में छठ की पूजा के दौरान सुनने को मिलते थे। उनकी मां और सास दोनों ही छठ करती थीं, और इन गीतों से शारदा की जीवन यात्रा जुड़ी थी। शारदा ने अपनी सास से ही छठ पूजा के रीति-रिवाजों और गीतों के बारे में सीखा था। उन्होंने कहा था, ‘जब मेरे पति बचपन में बहुत बीमार थे, तब मेरी सास ने छठ व्रत रखा था और उनके ठीक होने के बाद यह व्रत हमारे परिवार में परंपरा बन गया।’

चार खास छठ गीत

शारदा सिन्हा के कॅरियर का अहम मोड़ 1978 में आया, जब उन्होंने छठ के चार गीत रिकॉर्ड किए ‘डोमिनी बेटी सूप लेले ठार छे’, ‘अंगना में पोखरी खनाइब, छठी मैया आइथिन आज’, ‘मोरा भैया गैला मुंगे और ‘श्यामा खेले गैला हैली ओ भैया। इन गीतों ने उन्हें घर-घर में पहचान दिलाई और उनकी आवाज को सभी ने सराहा।

शारदा सिन्हा ने अपनी आवाज से बिहार के संगीत संसार को समृद्ध किया। उनका संघर्ष, उनकी मेहनत और छठ गीतों के प्रति उनका प्रेम आज भी लोगों के दिलों में जीवित रहेगा। सास के विरोध और परिवार के संघर्षों के बावजूद शारदा ने न केवल खुद को साबित किया, बल्कि बिहार के लोक संगीत को भी दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया।

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