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सिंराई घाटी की जीवन रेखा कमल गंगा नदी

by The Photon News Desk
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नदियों और पहाड़ों का अपना एक अनोखा गठजोड़ है। ऐसा लगता है कि दोनों ही एक-दूसरे के लिए बने हों। ना तो नदी पहाड़ का साथ छोड़ती है ना पहाड़ नदी का साथ छोड़ते हैं। पुरोला में कमल नदी बहती है। स्थानीय लोग इस नदी को ‘कमोल्ड’ नाम से पुकारते हैं। कहते हैं कि कमल नदी हमारी जीवन रेखा है। पुरोला से निकलते वक़्त नदी की खूबसूरती पर एक नजर पड़ी थी। लेकिन अब इसके साथ बात करने और थोड़ा समय व्यतीत करने का मन हुआ।

कुछ बच्चों ने बताया कि वैसे तो नदी सात किमी दूर है लेकिन ट्रेक करके जाएंगे तो दो से तीन किमी। ट्रेकिंग हमेशा से ही मुझे अच्छी लगती है। इसलिए मैंने ट्रेकिंग करके जाने की बात को ज्यादा तरजीह दी और रात को ही प्लान बन गया था कि कल क्लास खत्म होने के बाद हम लोग कमल गंगा चलेंगे। दिन में हमने बच्चों की पोएट्री वर्क शॉप की। साहित्य और कविता लेखन के बारे में बताया। कविताएं कलेक्ट की और दोपहर लंच के पश्चात कमल नदी को देखने के लिए निकल पड़े।

इस सफर में कुछ छात्र भी साथ थे जो वहां के स्थानीय गांव में ही रहते थे और उस जगह का उन्हें पूरा का पूरा अंदाजा था कि कैसे नीचे पहुंचना है। उन्हीं से मुझे पता चला कि यह नदी कोई ग्लेशियर से निकलने वाली नहीं है, यह कमलेश्वर स्थित जंगल के बीच एक प्राकृतिक जल स्रोत से निकलती है जो सदाबहार जलधारा है। यह जलधारा कमल नदी के रूप में लगभग 30 किमी बहकर नौगांव के पास यमुना में संगम बनाती है।

यह जानकर मेरे अंदर नदी को देखने की उत्सुकता और भी ज्यादा बढ़ गई। लेकिन वहां तक जाने का कोई रास्ता नहीं था। हमें एक अंदाज के सहारे धुनगिर की सीधी पहाड़ी से नीचे की तरफ उतरना था। ऐसे कूद-कूदकर जाना है यह जानकर मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी लेकिन सामने सीढ़ीदार खेत इतने खूबसूरत लग रहे थे कि कदम बरबस ही आगे बढ़ते गए।

एक दो बार लड़खड़ाए तो मैं पेड़ों और झाड़ियों की मदद लेकर चलने लगा। वह पहाड़ी लड़का जो सबसे आगे चल रहा था उसने बताया कि सर यह पत्थर बहुत ही भरोसेमंद होते हैं। अगर आपको पहाड़ चढ़ना है तो सबसे ज्यादा भरोसा इन पत्थरों पर करना होगा। यह आपके विश्वास को कभी नहीं तोड़ेंगे। इसलिए हाथ को हमेशा फ्री रखकर अपना पैर मजबूती से रखिए। मैंने ऐसा ही किया और हम उस पहाड़ी से नीचे उतरने में सफल रहे।

पहाड़ पर हमेशा मजबूती से पैर रखना होता है, खासकर तब जब आप किसी ढलान पर हों। मैंने यहीं पत्थरों पर खुदसे ज्यादा विश्वास करना और अपना पैर जमाना सीखा तो सचमुच मुश्किल रास्ता भी थोड़ा-थोड़ा आसान लगने लगा। नदी कुछ ही नीचे पर दिखाई दे रही थी।

यह बारहों महीने बहने वाली कमल नदी शनै-शनै बहती हुई अपने आस-पास कमलेश्वर से रामा, बेष्टी, कण्डियाल गांव, कुमोला, देवढुंग, पुरोला, चन्देली, नेत्री, हुडोली, सुनाराछानी, थलीछानी सहित पचपन गांवों की लगभग 4500 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई करती है।

लोग बताते हैं कि इस क्षेत्र से कमल नदी नहीं बहती तो राज्य के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा यहां पलायन का ग्राफ सर्वाधिक होता। कमल नदी पूरे सिंराई घाटी की प्राकृतिक सौन्दर्य को अपने जल से निखारकर सुरम्य बना देती है। इस पूरी पट्टी को रामासिंराई और कमलसिंराई के नाम से जाना जाता है।

रास्ते में इक्के दुक्के घर भी थे लेकिन यहां के घरों तक बिजली और पानी की पहुंच नहीं थी। कुछ ग्रामीण महिलाएं ओखल में धान कूटती दिखाई दीं तो एक बार बचपन की स्मृतियों तक का सफर कर आया। मेरे गांव में भी तकरीबन पन्द्रह साल पहले इसी तरह से धान से चावल निकाला जाता था।

यहां ‘लाल चावल’ की पैदावार खूब होती है। मुझे लोगों ने बताया कि यहां पैदा होने वाला यह ‘लाल चावल’ कोई मामूली चावल नहीं। यह पूरी दुनिया में विख्यात है। रामासिंराई, कमलसिंराई क्षेत्र में लाल चावल की भारी पैदावार लोगों को अपने साथ बांध कर रखती है। यह यहां की नकदी फसलों में से एक है। यह पुरोला और नौगांव विकासखण्ड के लगभग सौ गांवों के लोग की अजीविका का मुख्य स्रोत है। हिमाचल के आधा किनौर क्षेत्र की पूर्ति भी सिंराई क्षेत्र का ‘लाल चावल’ करता है।

नदी पर पहुंचने ही वाले थे कि देखा गील्लू भी हमारे साथ पीछे पीछे आ गई है। गिल्लू एक पहाड़ी बिल्ली थी जो कि कुछ दिन पहले मुझे घायल अवस्था में इन्हीं पहाड़ियों में मिली थी। गले पर चोट के निशान थे। शायद किसी जानवर ने इस पर हमला कर दिया था। वह बहुत छोटी थी मुश्किल से एक महीने की। मुझे उसे उसके हाल पर छोड़ना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसे अपने साथ उठा लाया था।

तीन दिन के ईलाज के बाद अब वह चलना और गुर्राना सीख गई थी। इतनी ठंड में यहां देखकर मेरे चेहरे पर हैरानी और परेशानी के भाव उभर आए लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था? मैंने उसे अपने हाथ में उठा लिया और नदी पर पहुंचने के बाद उसे एक सुती बोरी के अंदर रख दिया ताकि ठंड ना लगे और उसके शरीर की गरमाहट बनी रहे।

कमल नदी को देखकर मन प्रसन्नता से भर उठा। यह एक छिछली नदी है जिसमें ज्यादा पानी नहीं होता। बावजूद इसके हम खुश होकर अपनी मस्ती में डूब गए। जमकर नहाया, घंटों तक फोटोग्राफी किया तथा संकरे और हरे भरे रास्तों से माता की यात्रा को जाते हुए लोगों को देखता रहा।

इस यात्रा के बारे में मैं जानना चाहता था पर शाम ढलने लगी थी, सोचा कि फिर कभी, लेकिन सीढ़ीदार खेत अभी भी मेरी आंखों में तैर रहे थे। इन खेतों की भी क्या गजब की खूबसूरती होती है। परंतु हर जगह की स्थिति ऐसी नहीं है। उत्तराखंड के सत्तरह हजार जल स्रोत सूख चुके हैं जिसकी वजह से धीरे-धीरे यह खेती कम होती जा रही है जो कि आने वाले समय के लिए बहुत बुरा संकेत है। हालांकि इस बात को लेकर लोगों में चिंता भी है और सरकार ने भी इस दिशा में कई कदम उठाये हैं और तरह-तरह की योजनाओं पर काम किया जा रहा है। उम्मीद जताई जा रही है कि भविष्य में पर्यटन के साथ साथ इस जगह की प्राकृतिक सम्पदा का भी ख्याल रखा जाएगा और इन प्रयासों के बेहतर परिणाम होंगे।

Sinrai Ghati

संजय शेफर्ड

 

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