नई दिल्ली: न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच हालिया बयानबाजियों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका पर संसद और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया जा रहा है। यह टिप्पणी उस समय की गई जब पश्चिम बंगाल में हालिया हिंसा को लेकर राष्ट्रपति शासन की मांग वाली याचिका पर सुनवाई चल रही थी।
क्या कहा न्यायमूर्ति बीआर गवई ने
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति बीआर गवई ने की। न्यायमूर्ति बीआर गवई अगले महीने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभालने वाले हैं। उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा, “आप चाहते हैं कि हम एक आदेश जारी करें? वैसे ही हम पर कार्यपालिका और संसद के कार्यों में दखल देने का आरोप लग रहा है।”
तमिलनाडु विधेयक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जुड़ा विवाद
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी उस समय आई है जब हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और कुछ भाजपा नेताओं ने तमिलनाडु से जुड़े एक ऐतिहासिक फैसले को लेकर न्यायपालिका की आलोचना की थी। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को दोबारा पारित किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने की समयसीमा तय की थी।
यह कहा था उपराष्ट्रपति ने
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल को एक सार्वजनिक मंच से कहा था कि “लोकतंत्र में यह स्थिति नहीं हो सकती कि न्यायालय राष्ट्रपति को निर्देश दे। यह बहुत गंभीर विषय है। यह फैसला न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका दोनों के कार्य करने की छूट देता है।” धनखड़ ने आगे कहा, “अगर राष्ट्रपति समयबद्ध निर्णय नहीं लेते, तो कानून अपने आप लागू हो जाता है। यह किस तरह का कानून है? क्या अब जज कानून बनाएंगे, कार्यपालिका की भूमिका निभाएंगे और सुपर-पार्लियामेंट बन जाएंगे?”
पश्चिम बंगाल हिंसा पर याचिका के बहाने आया सुप्रीम कोर्ट का बयान
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी उस समय आई जब अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद सहित विभिन्न जिलों में हालिया हिंसा का हवाला देते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की। जैन ने कहा, “मैं बंगाल में हाल में हुई हिंसक घटनाओं को न्यायालय के संज्ञान में लाना चाहता हूं, जिसमें जान-माल का नुकसान हुआ है।”
सुप्रीम कोर्ट और कार्यपालिका के अधिकारक्षेत्र पर चल रही बहस
तमिलनाडु विधेयक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधायिका के निर्णयों पर अनिश्चितकाल तक निर्णय टालने का अधिकार नहीं है। यह फैसला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या के तहत आया था, जिससे विधायी प्रक्रिया की प्रभावशीलता सुनिश्चित हो सके। उधर, कार्यपालिका से जुड़े नेताओं ने इसे न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन बताया है।
अब आगे क्या
सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की आलोचनाओं के बीच भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के तीनों स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के बीच अधिकारों की स्पष्टता और संतुलन पर एक नई बहस छिड़ गई है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि आने वाले दिनों में इस संवैधानिक विमर्श की दिशा क्या होती है।