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ढूँढते हो मानवों में क्यूँ यहाँ संवेदनाएँ…

by The Photon News Desk
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ढूँढते हो मानवों में क्यूँ यहाँ संवेदनाएँ
प्राण इनमें शेष हैं पर, प्रीति इनकी सो चुकी है

स्वर अगर थक जाएँ तो हुँकार में भाषा बदलकर
लीक से हटकर स्वयं की इक नई शैली गढ़ो तुम
आज भी चहुँओर अनगिन चेतकों की हैं क़तारें
रक्त में उन्माद भरकर चढ़ सको यदि तो चढ़ो तुम
कर रही है ज़िन्दगी मङ्गल समय की याचनाएँ
संकटों की श्रृंखला लम्बी अवधि तक ढो चुकी है
ढूँढते हो मानवों में क्यूँ यहाँ संवेदनाएँ
प्राण इनमें शेष हैं पर, प्रीति इनकी सो चुकी है

शब्द हैं मधुरिम परन्तु आचरण है प्रश्नवाचक
नीतियाँ उन व्यक्तियों की क्या हमें अधिकार देंगी
भाग्य की मनमानियों पर कर्म का अतिशय नियंत्रण
हाथ की धूमिल लकीरें फिर नए आकार लेंगी
अनुभवों का हर पुलिन्दा खोल कर हैं गीत लिखने
एक चौथाई सही पर आयु भी कम हो चुकी है
ढूँढते हो मानवों में क्यूँ यहाँ संवेदनाएँ
प्राण इनमें शेष हैं पर, प्रीति इनकी सो चुकी है

shekhar tripathi

शेखर त्रिपाठी
लखनऊ

 

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