एक बहुत पुरानी कहावत है- काजी जी दुबले क्यों, शहर की चिंता में। ऐसा ही मामला हाल के दिनों में देखने को मिला, जब एक नेताजी दूसरों की नहीं, दूसरे शहर की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। दरअसल, नेताजी को एक बार उस शहर में जोर आजमाइश की संभावना जगाई गई थी। इसके बाद तो उन्होंने न केवल वहां कैंप कर दिया, बल्कि उस शहर और वहां के रसूखदार की पूरी कुंडली खंगालनी शुरू कर दी। रसूखदार पर ताबड़तोड़ तमाम आरोप लगाने लगे। इसी बीच एक ड्रैकुला प्रकट हुआ और नेताजी को ऐसा हड़काया कि उन्होंने चैप्टर ही बंद कर दिया। अब हाल के दिनों में फिर से वहां की खबर लेनी शुरू कर दी है। कभी वहां की दीवार को लेकर चिंता खाए जा रही है, तो वहां फल-फूल रहे कारोबार से सरकार को घाटा होने की बात सोने नहीं दे रही है।
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आम खाओ, गुठली मत गिनो
ऐसा सुना था कि तथाकथित गरीबों के मसीहा निरीह लोगों की मदद भी करते थे। पहले उनके गुर्गे किसी को लूट लेते थे, तो गुहार लगाने पर मसीहा उसे माल लौटा भी देता था। हालांकि मसीहा यह नहीं बताता था कि यह माल किसने लूटा था। इसी तरह का मामला अपने शहर में भी दिखा, जब किसी व्यक्ति का लाखों का सामान गिरकर गुम हो गया था। जब मामला खाकी पर दाग छुड़ाने की हुई, तो उस व्यक्ति को बाकायदा सही सलामत पूरा माल लौटा दिया गया। फोटो सेशन भी हुआ, लेकिन यह आज तक नहीं पता चला कि वह माल किसके पास था। कहां रखा था, किस बात का दबाव था, जो इतनी आसानी से वापस मिल गया। लौटाने वाले ने हृदय परिवर्तन की कथा भी नहीं सुनाई। अब शायद यह मामला लंबे समय तक रहस्य बना रहेगा। इसके पीछे का उद्देश्य भी नहीं मालूम।
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पंजा क्या, अंगुली नहीं टूटी
राजनीति में जब भी किसी नए व्यक्ति को चुपचाप कोई पद मिल जाता है, तो उससे बराबरी की चाह रखने वाले कुछ लोग इतने जल-भुन जाते हैं कि पूछिए मत। उनका बस चले तो जलती आग में कूद जाएं। इस बार यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन धमकी जरूर दे दी गई कि हमारे साथ इंसाफ नहीं हुआ, तो आग लगा लेंगे। हुआ यूं कि एक जमीनी स्तर पर लंबे समय से संघर्ष करने वाले युवा टाइप नेता को बड़ा पद मिल गया। चूंकि, पद की घोषणा देर शाम को की गई थी, तो उस दिन करने लायक कुछ नहीं बचा था। अगले दिन एक ज्वलनशील टाइप के नेता उबलने लगे। आलाकमान तक गुहार लगाने पहुंच गए। खबर फैलाई कि उन्हें धमकी देकर आए हैं। यदि पूरा मामला कांच की तरह पारदर्शी नहीं किया गया, तो सूची को छोड़िए, खुद को आग के हवाले कर दूंगा।
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बेरोजगारी में धरना-प्रदर्शन
जब राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के सामने कोई काम नहीं बचता, यानी बेरोजगार हो जाते हैं तो अपना खर्चा-पानी चलाने के लिए धरना-प्रदर्शन टाइप का काम ढूंढ लेते हैं। इससे उनके समर्थकों-चमचों के भी छिटकने का खतरा कम हो जाता है। इसी तरह का धंधा आजकल कुछ लोग चला रहे हैं, जो बेरोजगार हो गए हैं।
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अब अपनी ही सरकार बन गई है, तो सरकार के खिलाफ कुछ विरोध- प्रदर्शन तो नहीं कर सकते। ऐसे में जनता को भड़काने वाले मुद्दे खोजकर चंदा वसूली होती है, हजार-पांच सौ लोगों को जुटाया जाता है और धरना, प्रदर्शन और जुलूस के नाम का खेला होता है। भले ही इससे होने वाले सड़क जाम में उनके लोग ही क्यों न फंस जाए, उन्हें इससे मतलब नहीं रहता। उनके अपने लोगों की भूख से जान निकल जाए। एंबुलेंस फंसने से किसी की मौत हो जाए, उन्हें तो यह एडवेंचर की तरह लगता है।
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