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हिंदी दिवस विशेष : हिन्दी में कितनी हिन्दी

by Rakesh Pandey
हिंदी दिवस विशेष : हिन्दी में कितनी हिन्दी
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यह हिंदी दिवस का मौका है और हिंदी भाषा को लेकर चारो तरफ पर्व जैसा माहौल है। कहीं पर कार्यक्रम हो रहे हैं, कहीं पर प्रतियोगिताएं और कहीं पर वाद- विवाद तो कहीं पर विचार और विमर्श। यह सब इस लिहाज से जरूरी भी है क्योंकि हिन्दी सिर्फ भाषा ही नहीं बल्कि एक समाज भी है। एक ऐसा समाज जो हिंदी भाषा के समावेशी स्वभाव को जाहिर करता है। जिसमें हिंदी क्षेत्र की बहुत सारी अच्छाइयां, बुराइयां और सवाल शामिल हैं। यह सवाल ही हैं जो हिन्दी में तरह-तरह के पहलुओं को उजागर करते हैं और हिंदी भाषा और समाज से जुड़े तमाम तरह के विषयों को जन्म देते हैं।

हिंदी दिवस की अवधारणा और इतिहास भी इन्हीं तमाम सवालों और विषयों से जुड़ा हुआ है। इसके इतिहास पर एक नजर डालें तो हमें पता चलता है कि देश को आजादी मिलने के तक़रीबन दो साल बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में एक मत से हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था और इसी के बाद से हिन्दी की अनदेखी को रोकने के लिए हर साल 14 सितंबर को देशभर में हिंदी दिवस मनाया जाता है।

कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि हम 14 सितम्बर को ही हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं। इसका जवाब यह दिया जाता है कि इस दिन हिन्दी भाषा के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे।

तभी से हिंदी दिवस को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी सवाल यही है कि क्या हिंदी इस स्थित में है कि उत्सव मनाया जा सके? इस पर सबके अपने अलग-अलग मत हो सकते हैं। लेकिन यह सवाल अभी भी सार्वभौमिक है कि क्या हिंदी दिवस मनाने से हिन्दी की अनदेखी क्या रुक पाई? नहीं, आज भी हिन्दी की उतनी ही अनदेखी हो रही है जितनी की कभी पहले थी।

एक तरह से देखा जाए तो वर्तमान में हिन्दी एक आरक्षित भाषा के तौर पर स्थापित हो चुकी है और इससे बहुत सारे मुद्दे गायब नज़र आते हैं।

वर्तमान की हिन्दी की लड़ाई अभी भी वहीं अटकी हुई नज़र आती है, जिसके लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सेठ गोविन्ददास आदि साहित्यकार निरंतर संघर्ष करते रहे। आज भी अगर हम समग्रता में देखें तो हिन्दी भाषा और समाज में जो स्थित पुरुषों की है, वही स्त्रियों की नहीं है। भाषा में वर्चस्ववाद की जो प्रवृत्ति है वह अभी भी क़ायम है।

हिन्दी भाषा और समाज से स्त्रियों के मुद्दे और अवसर दोनों ही गायब है। आज आज़ादी के 50 साल बाद भी लोगों को यह नहीं समझ में आ पाया कि जैसे- जैसे हिन्दी भाषा और समाज में स्त्रियों की सहभागिता और दख़ल बढ़ रही है। हिन्दी में स्त्री आलोचना की एक नई दृष्टि की ज़रूरत पड़ेगी। स्त्री लेखिकाएँ आज भी उन्हीं चुनौतियों का सामना कर रही हैं जिसका पहले कर रही थी।

ठीक यही स्थिति कमोवेश भाषा के स्तर पर भी है। हम अभी भी बहुत सारे अंग्रेज़ी के ऐसे शब्द उपयोग में लाते हैं जिनके लिए हिन्दी में कोई शब्द ही नहीं है। ना ही इस पर कहीं कोई काम होता दिखाई दे रहा है। ऐसे में हिन्दी के विस्तार की जो बात की जाती है कहीं ना कहीं बहुत ही खोखली और उथली जान पड़ती है।

हमने जैसे अपनी भाषा और शैली गढ़ी वैसे ही बहुत सारे शब्द भी गढ़ने होंगे। हिन्दी भाषा के साथ हिन्दी समाज की भी बात करनी होगी ताकि लोगों को अपनी भाषा से जुड़ाव हो सके। लेकिन इस स्तर पर भी हिन्दी भाषा की वकालत करने वाले लोग भी हिन्दी समाज के लोगों के बीच संवेदना नहीं पैदा कर पाए।

हिन्दी भाषा की बात अंततः हिन्दी में तकनीकी की बात पर आकर रुक जाती है। तकनीकी ने हिन्दी की पहुंच को निसंदेह विस्तार देने का काम किया है लेकिन वर्तमान में AI टूल्स क्या हिन्दी में भी उसी तरह से काम कर रहे हैं जैसे कि अंग्रेज़ी अथवा दुनिया की अन्य भाषाओं के साथ काम कर रहे हैं? शायद नहीं। AI टूल्स जितनी सहजता से अंग्रेज़ी भाषा के साथ काम करते हैं, उतनी ही सहजता से हिन्दी और अन्य हिंदुस्तानी भाषाओं के साथ नहीं करते हैं।

यह सब कुछ ऐसे सवाल हैं जो इस बात की माँग करते हैं कि हिन्दी को सिर्फ़ उत्सवधर्मिता तक सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि भाषा और समाज से जुड़े मुद्दों पर गम्भीरता से काम करना चाहिए ताकि हिन्दी भाषा को एक समावेशी भाषा के तौर पर स्थापित किया जा सके। अन्यथा यह सवाल उठना लाज़मी है कि हिन्दी में कितनी हिन्दी है।

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