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Jharkhand Own Book Festival: अक्षरों-किताबों के क्षीरसागर में गोते लगाते रहे सुधीजन

साहित्य कला फाउंडेशन के साहित्यिक अनुष्ठान में नामीगिरामी हस्तियों ने ज्ञान से किया ओतप्रोत

by Mujtaba Haider Rizvi
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जमशेदपुर : साहित्य कला फाउंडेशन का दूसरा संस्करण एक नया इतिहास गढ़ने की ओर अग्रसर हो गया है। पहले दिन की शुरुआत भव्य तरीके से हुई। साहित्यकार-सह-राज्यसभा सांसद डॉ. महुआ माजी की गरिमामय उपस्थिति ने आयोजन को भव्य बना दिया, तो साहित्य जगत के पुरोधा डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने इसे काफी ऊंचाई पर पहुंचा दिया। नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान केंद्र की प्रोफेसर डॉ. गरिमा श्रीवास्तव ने पुस्तकों पर चर्चा करते नारी विमर्श को नया मोड़ दे दिया। इसी कड़ी में संथाली और भोजपुरी भाषा में हुए संवाद सत्र ने मील का पत्थर स्थापित किया। इसी कड़ी में जब डॉ. कुंदन यादव ने बनारस की छौंक लगानी शुरू किया, तो सभी उसकी सुगंध में मदमस्त होते दिखे। संपादकों की गोष्ठी ने पत्रकारिता जगत की एक-एक मीन-मेख पर खुलकर बातें रख दीं। ठाकुरबाड़ी के संदर्भ में कहे गए किस्से भी श्रोताओं को लंबे समय याद रहेंगे। समापन सत्र संगीत के नाम रहा, जिसमें काव्यराग नामक बैंड ने दिन भर की थकान मिटा दी। अब बातें जरा विस्तार से…-

वाचिक परंपरा में लौट रही नई पीढ़ी : डॉ. महुआ माजी

राज्यसभा सांसद डॉ. महुआ माजी ने अपने संबोधन में कहा कि आजकल यह कहा जाता है कि अब नई पीढ़ी में पहले की तरह पुस्तकों में रुचि नहीं है, लेकिन यह सही नहीं है। अब नई पीढ़ी पढ़ने की जगह सुनना ज्यादा पसंद कर रही है। हम कह सकते हैं कि यह पीढ़ी वाचिक परंपरा में लौट रही है। शायद यही वजह है कि आज डिजिटल या ऑडियो बुक की भरमार हो गई है। उन्होंने शिकागो यात्रा का उल्लेख करते हुए बताया कि कैसे मीलों दूर रह रहे भारतीय अपनी संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। इसी कड़ी में उन्होंने बताया कि झारखंड में साहित्य व कला एकेडमी का प्रस्ताव राज्य सरकार की कैबिनेट से पारित हो गया है। इससे साहित्य को काफी बढ़ावा मिलेगा। उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर कहा कि 32 जनजातीय भाषाओं में 9 ही विकसित हुई हैं, नई पीढ़ी अन्य भाषाओं पर भी लेखन-संवर्द्धन करे, तो काफी कुछ हो सकता है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि हिंदी 48 भाषाओं से बनी है, लेकिन, मेरी सलाह है कि इसे इतना सरल बनाया जाना चाहिए कि दक्षिण भारतीय को भी समझने में आसानी हो। उन्होंने बंगाल के प्रसिद्ध लेखक माइकल मधुसूदन दत्त का उदाहरण देते हुए कविताओं-गीतों को छंद-लय में विकसित करने पर जोर दिया, ताकि इसे लोग ज्यादा दिनों तक याद रख सकेंगे।

मुद्रित साहित्य ही स्थायी ज्ञान का माध्यम : डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

कार्यक्रम का सबसे पहला सत्र -जीवन में किताबें और किताबों में जीवन- पर रहा, जिसमें नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने साहित्य की वाचिक परंपरा से लेकर इंटरनेट युग तक को एक सूत्र में पिरो दिया। उन्होंने कहा कि एक दशक से इंटरनेट का दौर चल रहा है, जिसमें आज की पीढ़ी गूगल-ज्ञान पर ज्यादा भरोसा करती है। लेकिन, उन्हें जानना चाहिए कि मुद्रित या छपा हुआ साहित्य ही स्थायी रूप से ज्ञान दे सकता है। उन्होंने बताया कि लेखन की शुरुआत से पहले वाचिक परंपरा ही कायम थी। लोग एक-दूसरे से सुनकर दूसरों तक ज्ञान फैलाते या पहुंचाते थे। धीरे-धीरे लिखने की परंपरा शुरू हुई। पहले कहा जाता था कि जिसके पास पुस्तक है, वही पंडित या ज्ञानी है। यह लोकोक्ति वर्षों तक चली। नई पीढ़ी को मेरी सलाह है कि गूगल पर बहुत सी अशुद्धियां रहती हैं, इसलिए मुद्रित साहित्य पर भरोसा रखो। अंत में उन्होंने बच्चों पर लिखी कविता, मोर के पांव ही न देख तू, मोर के पंख भी तो देख… शूल भी फूल है, बस एक नजर तो देख तू… नाश तो हर किसी के हाथ में, सर्जना करे वही बड़ा… सुनाई।

मैं किताबों के ढेर में अंतिम सांस लेना पसंद करूंगी : डॉ. गरिमा श्रीवास्तव

उद्घाटन सत्र में जेएनयू की प्रो. डॉ. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने पिता के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि यदि कोई मुझसे पूछे कि मैं कैसे मरना पसंद करूंगी, तो मैं कहूंगी कि मैं किताबों के ढेर में अंतिम सांस लेना पसंद करूंगी। उन्होंने बताया कि मेरे पिता भी प्रोफेसर थे, सो उनके पास ढेरों किताबें थीं। उनकी मृत्यु के उपरांत उनकी किताबें कूड़े की तरह एक कमरे में रखी थीं। लेकिन, मेरे लिए वह कबाड़ नहीं था। इससे पहले उन्होंने महिलाओं के यौनशोषण के किस्से सुनाए, जिसमें सांगली-महाराष्ट्र का भी प्रसंग था। उन्होंने बताया कि वहां सड़क किनारे 20 रुपये में भुट्टा सेंक रही महिला, उतने ही रुपये में देह का भी सौदा कर लेती है। यूरोपीय देशों की महिलाएं अब भी द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में जी रही हैं। उनके साथ 1992 से 1995 तक यौन उत्पीड़न हुए कि उन्होंने इसी को नियति मान लिया है।

अभी शुरू हुआ है जनजातीय भाषाओं की समृद्धि का दौर पहले दिन के कार्यक्रम का दूसरा सत्र- जनजातीय भाषाओं की ज्ञान परंपरा और किताबें- था, जिसमें साहित्य कला अकादमी से पुरस्कृत संताली साहित्यकार पद्श्री भुजंग टुडू व पत्रकार भादो माझी के साथ मॉडरेटर की भूमिका में शहर के संदीप मुरारका रही। उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए दोनों वक्ताओं ने बताया कि संताली साहित्य का इतिहास महज 100 वर्ष पुराना है, इसलिए इसकी समृद्धि का दौर अभी शुरू हुआ है। टुडू ने भी इस बात को दोहराया कि जनजातीय साहित्य या संस्कृति वाचिक परंपरा से ही शुरू हुई है। लगभग 1894 में पहला साहित्य लोकगीत के माध्यम से लिखा गया था। इसके बाद ओलचिकि लिपि के जनक पं. रघुनाथ मुर्मू ने संताली भाषा को विस्तार दिया। अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इसके लिए सबसे पहले हमें अपने ही समाज में पाठक वर्ग तैयार करना होगा।

भोजपुरी में हुई उपन्यास ग्राम देवता की बातगांव के देवता या देवता का गांव विषयक परिचर्चा प्रो. रामदेव शुक्ल के उपन्यास ग्राम देवता पर आधारित रही। इसमें डॉ. मुन्ना कुमार पांडेय ने पुस्तक के लेखक व गोरखपुर यूनिवर्सिटी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर रामदेव शुक्ल से संवाद किया। उन्होंने बताया कि यह किताब लिखने की प्रेरणा कई प्रसंगों-संस्मरणों पर रही। उन्होंने बताया कि यह पहला भोजपुरी उपन्यास है, जिसका 2020 में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ। प्रो. शुक्ल ने कहा कि भोजपुरी बढ़ेगी, तो हिंदी भी बढ़ेगी। इस भाषा को हिंदी का दुश्मन नहीं समझा जाना चाहिए। इस परिचर्चा में भिखारी ठाकुर से लेकर कृष्ण बिहारी मिश्र तक चर्चा हुई।

बनारस का रस : गंडासा गुरु की शपथ

इस शीर्षक वाले कहानी के लेखक-सह-आईएएस डॉ. कुंदन यादव से सत्यार्थ अनिरुद्ध ने ढेरों बातें कीं। डॉ. यादव ने कहा कि जब काशीनाथ सिंह ने काशी का असी किताब लिखी, तो मुझे लगा कि यह तो एक मोहल्ले की कहानी है, तभी मुझे लगा कि पाठकों तक पूरे बनारस का रस पहुंचाना चाहिए। इसी परिकल्पना के साथ मैंने यह किताब लिखी। इस किताब का शीर्षक उस व्यक्ति पर लिखा, जिसने पानी वाले सांप के काटने पर गंडासे से अपनी पूरी अंगुली ही काट दी थी, जिससे विष पूरे शरीर में न फैल सके। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि 1990 के बाद बनारस का मिजाज और रहन-सहन काफी बदल गया है। फ्लैट कल्चर आने से लोगों का मेल-जोल भी वैसा नहीं रहा। यह शहर बहुत धीरे-धीरे चलता है। किसी को जल्दी नहीं रहती है। इस लिहाज से यह शहर, देश के अन्य नगरों से काफी अलग है। उन्होंने बताया कि पिताजी पुलिस विभाग में थे, सो उनके तबादलों की वजह से मैं 17 जिलों में पढ़ा। अब मुंबई में रहता हूं।

अखबारों की लेखनशैली व संस्कृति पर आए विविध पक्ष

कार्यक्रम का पांचवां सत्र-पढ़ने की संस्कृति का ह्रास और अखबारों की चुनौतियां- विषय पर थी, लेकिन इसमें अखबारों की लेखनशैली व संस्कृति पर भी खूब बातें हुईं। प्रभात खबर के संपादक संजय मिश्र ने कहा कि शब्दों का मानकीकरण नहीं हुआ है, जिससे अलग-अलग अखबारों में एक ही शब्द विभिन्न रूप में दिखते हैं। उन्होंने फेक न्यूज शब्द पर भी आपत्ति जताई। कहा कि यह शब्द अंग्रेजी से लिया गया है, जैसे येलो जर्नलिज्म को पीत पत्रकारिता कहा जाता है। ये हिंदी के शब्द हैं ही नहीं। न्यूज, फेक नहीं हो सकता है। दैनिक भास्कर के संपादक कुमार भवानंद ने कहा कि आदमी हर वक्त पढ़ता ही रहता है, चाहे डिजिटल हो या प्रिंट। अखबार भी डिजिटल फॉर्म में आ गए हैं। हां, सोशल मीडिया पर आप भरोसा नहीं कर सकते। चमकता आईना के संपादक जयप्रकाश राय ने कहा कि पहले हाथ से लिखा जाता था, अब की-बोर्ड पर लिखा जाता है। दोनों में आसमान-जमीन का अंतर है। इससे भी बड़ी बात कि पहले अखबार छपने से पहले तीन-चार स्तर पर पढ़ लिया जाता था, अब ऐसा नहीं होता, इसलिए त्रुटियां रह जाती हैं। दैनिक जागरण के संपादक उत्तम नाथ पाठक ने कहा कि जेन-जी में हिंदी की स्वीकार्यता है ही नहीं। पहले हर स्कूल में हिंदी के अखबार जाते थे, जिसे बच्चों को पढ़ने के लिए कहा जाता था, अब ऐसा नहीं है। शायद, इसी वजह से बच्चों में हिंदी प्राथमिकता में नहीं है। उदितवाणी के संपादक उदित अग्रवाल ने कहा कि आज के बच्चों के पास पढ़ने के लिए बहुत से ऑप्शन हैं। आज की पीढ़ी कंटेंट कंज्यूम करती है, पढ़ती नहीं है। वैसे भी जब बच्चा घर में अपने बड़ों को पढ़ते हुए नहीं देखेगा, तो क्या सीखेगा। इसलिए सबसे पहले घर में ही पढ़ने की संस्कृति विकसित करनी होगी, तभी हम बच्चों से उम्मीद रख सकते हैं कि वह भी पढ़े। दैनिक हिंदुस्तान के संपादक गणेश मेहता ने कहा कि ऊर्जा कभी खत्म नहीं होती है, उसी तरह पढ़ना भी है। इसका स्वरूप बदलता रहता है। जहां तक चुनौती की बात है, तो जहां चुनौती होती है, वहीं से निर्माण भी शुरू होता है। बदलाव को स्वीकार करना होगा। क्रिकेट में भी टेस्ट मैच से टी-20 तक आ गया है, भविष्य में यह टी-10 तक पहुंच जाएगा। श्रोताओं की ओर से डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, डॉ. अशोक कुमार झा अविचल, डॉ. विजय शर्मा व वैभव मणि त्रिपाठी ने भी संपादकों से सवाल पूछे।

आज होंगे ये कार्यक्रम

छाप महोत्सव में 18 नवंबर को सुबह से शाम तक कई कार्यक्रम होंगे। इसमें सबसे पहले सुबह 10 बजे से कबीर में प्रेम और कबीर से प्रेम पर ख्यातिलब्ध लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल से साहित्यकार विमलचंद्र पांडेय बात करेंगे। सुबह 10.40 बजे से कल्पना की उड़ान और युवा होता बालपन विषय पर पुस्तक उड़ने वाला फूल पर लेखिका उपासना से डॉ. क्षमा त्रिपाठी बात करेंगी। सुबह 11.20 बजे से अंग्रेजी का सत्र होगा, जिसमें कल्चरल वर्सेस मॉडर्निटी पर ख्यात लेखक जेरी पिंटो से डॉ. नेहा तिवारी कन्वर्सेशन करेंगी।

दोपहर 12 बजे से जीवन की विविधताओं पर ओड़िया लेखक व पत्रकार डॉ. गौरहरि दास से बात करेंगे बालकृष्ण बेहरा। दोपहर 12.40 बजे से स्त्री विमर्श पर लेखिका डॉ. बीना ठाकुर से बात करेंगे साहित्यकार अशोक कुमार झा। दोपहर 1.20 बजे से प्रयागराज के दौर में इलाहाबाद की यादें विषय पर लेखक और पटकथाकार शेषनाथ पांडेय से बात करेंगे वैभव मणि त्रिपाठी।

दोपहर 2 बजे से पोर्टल वाला मीडिया, रील के मकड़जाल वाले दौर में पत्रकारिता की चुनौतियां विषयक परिचर्चा में बैजनाथ मिश्र, अनुज कुमार सिन्हा और श्याम किशोर चौबे से बात करेंगे आनंद कुमार। महोत्सव के अंतिम सत्र में भोजपुरी भाषा की पहली साइंस फिक्शन फिल्म मद्धिम का प्रदर्शन होगा। प्रदर्शन के पश्चात निर्देशक विमल चंद्र पांडेय तथा कलाकार डॉ. मुन्ना कुमार पांडेय से डॉ. प्रियंका सिंह बात करेंगी। कार्यक्रमों का संचालन मीनाक्षी शर्मा व डॉ. प्रियंका सिंह करेंगी।

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