गुरु अपने बरामदे में बैठे होली की खुमारी उतार रहे थे। एक हाथ में चाय की प्याली, दूसरे में अखबार। पीछे से भोजपुरी गीत का स्वर आ रहा था : पिया जी के मुस्की हमरा लागेला बेजोड़ रे सखी…। आहट हुई तो पीछे मुड़कर देखा। शायद कोई रंग में भंग डालने आ गया था। मुंह से औपचारिक स्वागत के बोल फूट पड़े। अरे! तुम हो, आओ बैठो।
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चेहरे की भाव भंगिमा से साफ पता चल रहा था कि गुरु एकांत में खलल से कुछ खास खुश नहीं थे। अब घर आए का तिरस्कार कैसे करें? सो, बेमन से बातचीत शुरू की, ‘इधर कहां चले आए? अखबार की छुट्टी तो खत्म हो गई ना।’ गुरु की खीझ से झारखंड की नौकरशाही के गलियारे की खबर निकलती थी। सो, बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए जवाब देना था, ‘हां गुरु छुट्टी तो खत्म हो गई।
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बस, सोचा आपसे मिल लूं। होली में भी मुलाकात नहीं हुई।‘ इस जवाब के बाद भी गुरु मौन रहे। वह आने का असली अभिप्राय समझ रहे थे। सो, बिना देर किए सीधे सवाल दागा, ‘और गुरु! आपके गली-मुहल्ले के क्या हालचाल हैं? सुना है खाकी इन दिनों फार्म में है?’ गुरु ने अनमने से जवाब दिया, ‘हां, सुना तो मैंने भी है लेकिन अब यह मत पूछ लेना कि क्यों है? तुम्हारे अखबारी लिखत-पढ़त के चक्कर में कई लोग मेरा सुराग खोजने लगते हैं।’ गुरु के उत्तर में डर का आभास हो रहा था, लेकिन जानकारी निकालने के लिए भरोसा बढ़ाना जरूरी था।
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बातचीत जारी रखते हुए कहा, ‘क्या गुरु! आप भी डर रहे हैं? सिस्टम में रहकर सिस्टम की बात कहना तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में है। रही बात सुराग खोजने की, तो खबर देखकर तो खोजने वाले को भी यह पता चल जाता है कि बताने वाला कम पावर लेकर नहीं बैठा।’ लंबे जवाब से गुरु का कान्फिडेंस सातवें आसमान पर पहुंच गया। बोले, यार डरता नहीं हूं। सब अपने लोग हैं। कई बार सामने बैठकर चर्चा छेड़ देते हैं। ऐसा लगता है, मानो, कहीं इन्हें हकीकत तो पता नहीं चल गई। बोले-सुनो, अंदर की बात यह है कि खाकी ब्रिगेड के मुखिया मंजे खिलाड़ी हैं।
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अनुराग-वैराग्य के बंधन से मुक्त हैं। नौकरशाही की पिच पर पॉलिटिक्स का छक्का कब मारना है, उन्हें बखूबी पता है। कुछ दिनों पहले ही खबर आई कि सियासी खेमे में विरोधी गुट के अगुआ कुछ खफा से हैं। कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं। खाकी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं। गुप्ता जी ने ऐन वक्त पर यूपी मॉडल वाली ऐसी गुगली डाली कि मैदान के बड़े सूरमा क्लीन बोल्ड हो गए। जो दो दिन पहले सोशल मीडिया हैंडल पर सवाल पूछ रहे थे। वह गाड़ी पलटने पर पीठ थपथपाने लगे। मानो, विरोध के लिए अब कुछ बचा ही नहीं। बात यह है कि यूपी-एमपी में जिस प्रणाली को सुशासन बता रहे हैं। उसे झारखंड में कुशासन कैसे कह सकते हैं।
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