Jharkhand Bureaucracy : गुरु हाथ में केदारनाथ अग्रवाल की किताब लेकर बैठे थे। नजदीक पहुंचा तो देखा निगाह ‘बसंती हवा’ पर टिकी थी। गुरु मंद-मंद स्वर में कविता की पंक्तियां गुनगुना रहे थे। हवा हूं, हवा मैं बसंती हवा हूं…। कार्तिक के महीने में बसंत के गीत। गुरु का मिजाज टटोलना था सो, बगल की कुर्सी पर बैठ गया। सामने देख, गुरु ने पुस्तक पास की टेबल पर टिका दी।

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सवालों से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। कार्तिक में ‘बसंत’? गुरु सब ठीक है? गुरु बोले- हां-हां, बिल्कुल ठीक है। कविता का महीने से क्या लेना देना? मन-मिजाज होना चाहिए। तुम बताओ, धनवर्षा के मौसम में रंक गली का चक्कर क्यों लगा रहे हो? गुरु के प्रश्न में व्यंग्य साफ था। लिहाजा, सोच-समझ और संभलकर उत्तर दिया। अरे गुरु, ऐसा मत कहिए। आपकी गली में बड़े-बड़े महलों और कोठियों की खबरें तैरती हैं। पत्रकार बेचारा यह छोड़कर कहां जाए? गुरु के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। बोले- नौकरशाही की इबारत लिखकर तुम तो निकल जाते हो। कई बार सफाई हमें देनी पड़ती है। बहरहाल, बात महीने और माहौल से शुरू होकर नगर और मोहल्लों तक पहुंच गई।
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गुरु बोले, इन दिनों पर्व-त्योहार और पूजा-पाठ की धूम है। लिहाजा, भौतिक परिप्रेक्ष्य में तुम्हें एक आध्यात्मिक कथा सुनाता हूं। एक समय की बात है, अभ्रक नगर नामक स्थान पर देवराज इंद्र की नजर पड़ी। वरदान दिया कि नगर पर बारहमासा ऋतुराज (बसंत) बना रहेगा। मौसम में बदलाव हुआ। वरदान के अनुसार, नगर पर ‘ऋतुराज’ की कृपा हुई। पूरी प्रकृति में बहार आ गई। पेड़-पौधे, पहाड़, नदी सब बातें करने लगे। अपने अंदर की अमूल्य निधि निकालकर बाहर रखने लगे। ‘ऋतुराज’ की महिमा से चहुंदिशा लहलहा उठी।
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हर तरफ हरियाली छा गई। मामला, तब फंसा, जब एक पत्थर के पहाड़ ने ‘निधि’ देने से साफ इनकार कर दिया। चमत्कार को चुनौती मिलने पर ‘ऋतुराज’ कुपित हो गए। पहाड़ को झकझोरने के लिए विद्युत वेग से प्रहार किया। पहाड़ कहां विचलित होने वाला था। पूरी क्षमता से प्रतिउत्तर दिया। अब ‘ऋतुराज’ को कौन बताए कि जिस पहाड़ को हिलाने का प्रण लिए बैठे थे, उसका आधार पृथ्वी की निचली चट्टान से जुड़ा था। लिहाजा, जाने-अनजाने ‘ऋतुराज’ को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। जनता में यह बात फैलने लगी कि ‘ऋतुराज’ की शक्ति कमजोर पड़ने लगी है।
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समय रहते मौसम में बदलाव न हुआ, तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ने का संकट है। जनता त्राहिमाम कर उठी। देवराज की प्रार्थना में जुट गई। लोगों को अब इंद्र के अगले वरदान का इंतजार था। इतनी कहानी सुनाकर गुरु ने शिगूफा छेड़ दिया था। कुछ क्षण के लिए खामोशी छाई रही। गुरु सहज भाव से अपनी कुर्सी से उठे और शयनकक्ष में प्रवेश कर गए। कहानी का भावार्थ समझने के लिए मनन की आवश्यकता थी। लिहाजा, चुपचाप उठकर अपने रास्ते निकल लिया। यह सोचते हुए- आखिर ‘ऋतुराज’ की जिद का फलाफल क्या निकला? बसंती बयार कब कालबैसाखी बन जाए, कहा नहीं जा सकता।
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