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शहरनामा: कोई सेब दिखाएगा, कोई फलों की टोकरी

by Rakesh Pandey
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जमशेदपुुर :  हर मौसम की तरह पांच वर्ष में चुनाव का मौसम भी आता है, जिसका इंतजार सभी को रहता है। उम्मीदवार भले ही टेंशन में रहे, लेकिन मतदाता उन्हें ललचाई नजरों से ही देखता है। इस बार भी निर्दलीय उम्मीदवारों को ऐसे-ऐसे चुनाव चिह्न मिले हैं कि मतदाताओं की जीभ अभी से लपलपाने लगी है। वह सोच रहे हैं कि जब ऐसे उम्मीदवार उनके पास वोट मांगने आएंगे, तो जरूर उपहार के तौर पर सेब या टोकरी से एकाध फल देंगे। वे उसे भी देखना चाहते हैं, जो भीषण गर्मी में कोट पहना कर जाएगा।

कल होगी फूल-फूल की टक्कर

शेरों की धरती पर सोमवार को उम्मीदवारों के भाग्य मतपेटी में कैद हो जाएंगे। इस बार यहां फूल-फूल की टक्कर है। आप अभी भी नहीं समझे, तो बता दें कि एक को फूल वाले दल ने तीन साल की कोड़ाई-खोदाई के बाद उगाने में सफलता पाई है, जबकि तीर-कमान वालों के पास पहले से ऐसा प्रत्याशी था, जिसका नाम ही लाल फूल की ओर इशारा करता है। मजे की बात है कि दोनों ही फूल देवी को अर्पित किए जाते हैं। मतदाताओं को पसंद करना है कि कौन सा फूल उन्हें पांच साल तक शोभा बढ़ाएगा, कौन एक झोंके में मुरझा जाएगा।

समाज ही हो गया दो-फाड़

राजनीतिक माहौल में दलों का मतभेद तो सुना था, लेकिन समाज भी दो फाड़ हो जाएंगे, सोचा नहीं था। अपनी लौहनगरी में ऐसा ही कुछ हुआ है। दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के चक्कर में ऐसी घटना हुई है। बेचारे एक उम्मीदवार गए थे, वाहेगुरु से आशीर्वाद लेने, लेकिन वहां उनकी आवभगत इतनी ज्यादा हो गई कि दूसरा संगत नाराज हो गया। गुरुजी वाली कहानी की तर्ज पर इन्होंने दूसरे उम्मीदवार को खुलेआम समर्थन देने की घोषणा कर दी है। अब समाज के बाकी लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि यह क्या हो रहा है।

तोड़फोड़ से दहल रहा उनका दिल

इन दिनों अदालती आदेश के बाद शहर में ताबड़तोड़ छेनी-हथौड़ी चल रही है। इससे जिनकी इमारत बदसूरत हो रही है, उनसे ज्यादा उनका दिल दहल रहा है, जिन्होंने इसके बदले जेब मोटी की थी। थैले-बोरे में माल जमा किया था। वे भले ही अभी उन पदों पर विराजमान नहीं हैं, लेकिन हैं इसी राज्य में चक्कर काट रहे हैं। वे जब-जब अदालत की डांट-फटकार पढ़ते-सुनते हैं, उनकी नींद उड़ जाती है। सोच रहे हैं कि पता नहीं कब उन्हें सोते हुए अदालत उठवा ले और घर-मकान की कुर्की करा दे। खबर है कि अब वे अपनी ड्यूटी छोड़ अदालत की ओर कान लगाए रहते हैं।

\वीरेंद्र ओझा

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