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क्यों मनाया जाता है होलिका दहन? जानिए तिथि और महत्व

by Rakesh Pandey
Holika Dahan
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स्पेशल डेस्क : फाल्गुन मास में होली का पर्व मनाया जाता है।होली साल के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है। यह दो दिन का त्योहार है, जिसमें पहले दिन होलिका दहन (Holika Dahan) जलाई जाती है, तो दूसरे दिन रंगों वाली होली खेलते हैं। इन दोनों ही दिनों का अपना महत्व होता है। बसंत का महीना लगने के बाद से ही इसका इंतजार शुरू हो जाता है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा की रात होलिका दहन किया जाता है और इसके अगले दिन होली मनाई जाती है।

भाईचारे का प्रतीक है होली

हिंदू धर्म के अनुसार, होलिका दहन को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना गया है। होली एक सांस्कृतिक, धार्मिक और पारंपरिक त्योहार है। पूरे भारत में इसका अलग ही जश्न और उत्साह देखने को मिलता है। होली भाईचारे, आपसी प्रेम और सद्भावना का त्योहार है। इस दिन लोग एक दूसरे को रंगों में सराबोर करते हैं। घरों में गुझिया और पकवान बनते हैं। लोग एक-दूसरे के घर जाकर रंग-गुलाल लगाते हैं और होली की शुभकामनाएं देते हैं।

होलिका दहन की पूजा (Holika Dahan)

होलिका दहन करने के लिए हफ्ताभर पहले से ही गली के चौक पर या किसी मैदान में लकड़ियां, कंडे और झाड़ियां इकट्ठी करके होलिका तैयार की जाती है। इस लकड़ियों के ढेर को होलिका के रूप में होलिका दहन के दिन जलाया जाता है। होलिका का पूजन करने के लिए गाय के गोबर से होलिका और प्रह्लाद की प्रतिमाएं भी बनाई जाती हैं। पूजा सामग्री में रोली, फूल, कच्चा सूत, फूलों की माला, साबुत हल्दी, मूंग, गुलाल, नारियल, बताशे और 5 से 7 तरह के अनाज का इस्तेमाल होता है।

इसके बाद विधि-विधान से होलिका की परिक्रमा की जाती है और होलिका दहन होता है।

होलिका दहन की कथा

किवदंतियों के अनुसार, पृथ्वी पर हिरण्यकशिपु नामक एक राजा शासन करता था, जो भगवान विष्णु का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता था। उसने अपने राज्य में सभी को यह आदेश किया था कि कोई भी ईश्वर की पूजा नहीं करेगा। लेकिन, उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जब हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र को भगवान की पूजा करते हुए देखा, तो उससे सहा नहीं गया और अपने ही पुत्र को दंड देने की ठान ली। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को कई बार कष्ट देना चाहा, लेकिन भगवान विष्णु ने हर समय प्रह्लाद का साथ दिया।

होलिका दहन का शास्त्रों के अनुसार नियम

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है। इसके लिए कुछ नियम ध्यान में रखे जाते हैं। जैसे उस दिन ‘भद्रा’ न हो। भद्रा का दूसरा नाम विष्टि करण भी है, जो कि 11 करणों में से एक है। एक करण तिथि के आधे भाग के बराबर होता है। दूसरी बात, पूर्णिमा प्रदोषकाल-व्यापिनी होनी चाहिए। सरल शब्दों में कहें, तो उस दिन सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्तों में पूर्णिमा तिथि होनी चाहिए।

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