Jharkhand Shaharnama : मेला में धक्का-मुक्की हो ही जाती है। कुंभ में तो बड़ा हादसा हो गया था, गनीमत रही कि यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ। हां, तो हम बात कर रहे हैं दशहरा के मेले की। जब नदी घाटों पर माता की प्रतिमा विसर्जित होने आती है, तो मेले का दृश्य बन ही जाता है। ऐसा ही हुआ, अपने शहर में। घाट पर दो पुराने परिचितों में धक्का-मुक्की हो गई। दोनों ने आस्तीनें चढ़ा लीं।
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पुरानी अदावत याद आ गई। एक को कुछ चढ़ी हुई थी, सो अंदर का शेर जाग गया। सामने वाले को बकरी समझते हुए ललकारने लगा। वास्तव में वह बम-बारूद साथ लेकर चलता है, इसलिए जवाब देने में देर नहीं लगाई। थोड़ी देर बाद पता चला कि बम तो कब का फुस्स हो चुका है, सो खाकी के सामने मिमियाने लगा। उधर, शेर भी चूहा बन चुका था। रात में दोनों ने माफी मांग ली।
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निगम नहीं, जिला चाहिए
अपना मानगो आठ वर्ष बाद भी ढंग से निगम नहीं बन सका, लेकिन ख्वाब तो मेट्रो वाले हैं। फ्लाईओवर बनते देख हाकिमों को भी इसका फील आने लगा है, तो आनन-फानन में पुलिस अनुमंडल बनाने का प्रस्ताव रख दिया गया। पता नहीं यह कब बनेगा, लेकिन बुद्धिमान भतीजे ने झट से इसका क्रेडिट ले लिया। सुनने वाले अवाक रह गए। पहले तो कभी भतीजे ने इसकी चर्चा नहीं की थी, प्रस्ताव कब दे दिया था। खैर, इस मामले पर कोई पलटवार नहीं आया है, लेकिन बताते हैं कि चतुर चाचा अब इसे जिला बनाने का प्रस्ताव दे चुके हैं या दे दिया है। संभावना बहुत है, क्योंकि इसी जिले में दो-दो फ्लाईओवर बन रहे हैं। आसपास में बहुत से गांव-ब्लॉक हैं, जिसे मिलाकर यह जिला तो बन ही सकता है। वैसे भी यहां की आबादी दिनों-दिन बढ़ रही है। प्रस्ताव सरकार तक पहुंचते-पहुंचते काबिल बन जाएगा।
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फिर रूठ गई किस्मत
एक नेताजी हैं, वह हर चुनाव में उम्मीद से भर जाते हैं। इस बार भी दुर्भाग्य से उपचुनाव की नौबत आई, तो लगे फील्डिंग करने। गांव-गांव घूमे, समस्या सुन दिलासा भी देने लगे। समर्थन बढ़ाने के लिए प्रवास भी करने लगे थे। सुबह-शाम चौक-चौराहे पर दो-चार लोगों को चाय पिलाते और देश-दुनिया की राजनीति पर चर्चा करने लगते। उनके तेवर और मूड देखकर यही लगा कि इस बार वे पंजा लड़ाकर रहेंगे। लेकिन, दूसरे ही दिन उनका सपना तब टूट गया, जब आलाकमान ने घोषणा कर दी कि हाथ तो तीर-कमान का ही साथ देगा। इसके साथ ही भूतपूर्व नेताजी की किस्मत एक बार फिर रूठ गई। गनीमत रही कि इस बार वे खूंटा तोड़कर नहीं भागे। अब उन्हें पता चल गया है कि इस बार भागे तो रस्सी पकड़ने भी कोई नहीं आएगा। पिछली बार खूंटा तोड़कर भागे थे तो भागते ही रह गए थे।
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घर से निकलते ही…
घर से निकलते ही… कुछ दूर चलते ही…, यह गाना तो आपने सुना ही होगा। दरअसल, इस गाने की याद मुझे तब आई, जब छुक-छुक गाड़ी से यात्रा करने का अवसर मिला। ट्रेन पकड़ने के लिए घर से सुबह दस बजे निकला था, लेकिन स्टेशन पर पहुंचने से पहले ही पता चला कि गाड़ी दोपहर नहीं, शाम तक आएगी। फिर जांच-पड़ताल करने पर पता चला कि यह ट्रेन करीब 100 किलोमीटर दूर के स्टेशन पर आएगी। दौड़ते-भागते ही वहां पहुंचा, तो पता चला कि वह तो आपके शहर वाले स्टेशन पर ही शाम को आएगी। फिर उल्टे पांव भागा, तो गनीमत रही कि पांच मिनट बाद अपने शहर वाले स्टेशन पर आ गई। वैसे भी आजकल ट्रेन स्टेशन से खुलती है, तो कब गंतव्य पर पहुंचेगी, कोई नहीं बता सकता। स्टेशन से खुलकर आउटर या अगले किसी सुनसान हॉल्ट पर घंटों तक खड़ी रह सकती है।
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