इन दिनों माल या सामान पर टैक्स कम करने को लेकर खूब चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि अब तक जितनी जेब खाली हो चुकी, वह तो वापस नहीं आ सकती, लेकिन आगे से जेब कम हल्की होगी, यह गारंटी है। अब तक माल या सामान पर अलग-अलग नाम से कई बार टैक्स लागू किए जा चुके हैं। हर बार दावा यही रहता है कि अब तक जो भुगत चुके, आगे नहीं भुगतना पड़ेगा। बहरहाल, इस बार का टैक्स इस बात के लिए इतिहास में याद रहेगा कि इसकी वजह से चावल और आटे की बोरी का वजन एक किलो बढ़ गया था। आने वाली पीढ़ी इसी चक्कर में उलझी रहेगी कि 50 किलो का आधा 26 किलो कैसे होता है। तब उसे शराब की बोतलों का उदाहरण देकर समझाया जाएगा कि फुल, हाफ और क्वार्टर का गणित भी देख लो।
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विद्रोही हुआ व्यापारी
क्यों व्यापारी विद्रोही नहीं हो सकता क्या। इतिहास गवाह है कि व्यापारी जब-जब विद्रोही तेवर के साथ सड़क पर उतरा है, सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा है। खैर, आप इतने गंभीर चिंतन में मत जाइए। हम यहां बात कर रहे हैं, एक चुनाव प्रक्रिया की जो चल रही है। हर बार इस संस्था के चुनाव में बाहर से सब शांति-शांति नजर आती है, लेकिन अंदर ही अंदर एक व्यापारी विद्रोही बनकर उभर जाता है। हालांकि, हमने यह भी देखा है कि वह विद्रोही कुंठित होकर ही रह जाता है, लेकिन हर बार ऐसा ही होगा, यह कहना भी ठीक नहीं है। आप नाम पर मत जाइए, मुन्ना, बबलू, डबलू, पिंकू, टिंकू, पप्पू… जैसे नाम वाले भी कभी-कभी खतरनाक साबित हो जाते हैं। यह व्यापारी इससे पहले भी जोर-जोर से टेबुल पीट चुका है। इस बार इसने भी प्रक्रिया पर ही सवाल खड़ा कर दिया है।
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बयानवीर नहीं बयानहोड़
यह बीमारी अपनी लौहनगरी में ही नहीं, कमोबेश पूरे देश में समा चुकी है। जैसे ही कोई मुद्दा गरमाया, बयान देने वालों की होड़ लग जाती है। इसमें राष्ट्रीय या राज्य स्तर के नेता बयान दें तो कुछ अच्छा भी लगता है, लेकिन जब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के मसले या मुद्दे पर नगर निकाय या पंचायत स्तर के नेता बयान देने लगते हैं, तो सुनने या पढ़ने वाले को उबकाई आ जाती है। दरअसल, बयान देने वाला भी यह बात जानता है कि लोग उसके मुंह का लेवल देखकर हंसेंगे, लेकिन उसे यही मौका मुफीद लगता है, जब बेवजह ही उसे अखबार या चैनल में अपनी फोटो व नाम छपने का अवसर मिल जाता है। जब छापने वाला ही उन्हें मुफ्त में नेशनल लीडर के समान तरजीह दे रहा हो, तो बोलने वाले को क्या जाता है। ऐसे लोगों की नई कैटेगरी बन गई है, ‘बयानहोड़’।
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क्रेडिट-वार चालू आहे
पूरब हो या पश्चिम, सूर्य किसी भी दिशा में रहे, उसकी रोशनी में कोई अंतर नहीं रहता है। खासकर, दोपहर में उसकी गर्मी भी उतनी ही रहती है। ऐसा ही कुछ अपने शहर में चल रहा है। कोई भी काम पूरब में हो या पश्चिम में, क्रेडिट एक ही ले जाएगा, दूसरे को कुछ नहीं मिलेगा। आने वाले पांच वर्ष में जो भी नई चीज जनता को मिलेगी, वह पिछले पांच साल की मेहनत को ही जाएगा। यह तो गनीमत है कि पांच साल में भी कोई चीज धरातल पर उतर जा रही है। यहां तो पूरब और पश्चिम में कई ऐसे-ऐसे उदाहरण पड़े हैं, जो दस साल बाद भी जनता को मयस्सर नहीं हो सके। इसमें कोई अपनी नाकामी बताने जल्दी सामने नहीं आता, लेकिन कुछ सामने आ गया तो क्रेडिट-वार शुरू हो जाता है। हाल ही में जनता इसी तरह का खेल देख चुकी है।
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