एंटरटेन्मेंट डेस्क: क्या कोई इस दुनिया से जाने के बाद भी कर्ज लौटा सकता है। देश के जाने माने लेखक, गीतकार साहिर लुधियानवी के बारे में बात की जाए तो जवाब हां में हो सकता है। साहिर लुधियानवी ने आज के दिन ही इस दुनिया को अलविदा कहा था। वैसे तो साहिर की जिंदगी से जुड़े कई दिलचस्प किस्से हैं लेकिन हम आज आपको उनकी आखिरी पल से जुड़ा एक दिलचस्प वाकया बताते हैं जब मरने के बाद भी जावेद अख्तर से अपना कर्ज वापस लिया था।
मशहूर थी जावेद अख्तर और साहिर की दोस्ती
जावेद अख्तर और साहिर की दोस्ती के कई किस्से मशहूर हैं। लेकिन एक किस्सा जिसका जिक्र अक्सर जावेद करते रहते हैं। साहिर से जुड़ी कई किताबों में भी ये कहानी आपको मिल जाएगी। तो किस्सा कुछ यूं है, अपने स्ट्रगल के दिनों जब जावेद बॉम्बे नगरी में सर्वाइव कर रहे थे। उस वक्त नौबत ये तक आ गई थी कि उनके सारे पैसे खत्म हो गए। ऐसे में उन्होंने अपने दोस्त साहिर से मदद लेने का निर्णय लिया। फौरन उन्हें कॉल लगाकर घर पहुंचे। साहिर जावेद की उदासी समझ चुके थे। फिर उनका स्वागत करते हुए पूछा, क्या हाल है? उदास दिख रहे हैं, जनाब?
जावेद के लिए था मुश्किल दौर
जवाब में जावेद ने कहा, ’मुश्किल वक्त चल रहा है और पैसे खत्म होने को हैं। अगर कहीं काम दिलवा दें तो मेहरबानी होगी।’ हालांकि यहां साहिर की मनोस्थिति का वर्णन करते हुए जावेद ने बताया, साहिर जब भी परेशान होते, तो पैंट की पिछली जेब में रखी छोटी कंघी निकालकर बालों को संवारते थे। मन की उलझन वो बालों को संवार कर ठीक करने की कोशिश किया करते थे। काफी देर ये करने के बाद साहिर ने अपने शायराना अंदाज में कहा, ‘जरूर नौजवान, फकीर देखेगा कि क्या किया जा सकता है।’ फिर पास रखी मेज की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘हमने भी बुरे दिन देखे हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है’। मैंने देखा तो मेज पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।’
इतने संवेदनशील थे साहिर लुधियानवी
जावेद आगे कहते हैं, ’वो चाहते, तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे। ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख्स का मयार था कि पैसे देते वक्त भी वो मुझसे नजर नहीं मिला रहा था।’ आगे चलकर साहिर के साथ उनकी दोस्ती और गहरी होती गई। दरअसल, फिल्म त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर में कहानी सलीम-जावेद की थी, तो गाने साहिर साहब के होते थे। अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा किया करते थे। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, ’साहिर साब ! आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं’..साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए, तो साहिर कहते, ’इन्हीं से पूछिए’, ये सिलसिला लंबा चलता रहा।
कुछ यूं गुजरता गया वक्त
इसके बाद साहिर और जावेद की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक्त गुजरता रहा। फिर तारीख आई 25 अक्टूबर 1980 की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था.. जावेद के लिए ये सुनना आसान नहीं था।
वो आखिरी वक्त जब घूमने लगा फ्लैशबैक
इसके बाद जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि ‘वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी. आर. चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे। मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।’
जब कब्र के पास बैठे रहे जावेद अख्तर
जूहू कब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतजाम किया गया। रातभर के इंतजार के बाद साहिर को सुबह सुपर्द-ए-खाक किया जाना था। ये वही कब्रिस्तान है, जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की कब्रें हैं। साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफन किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए, लेकिन जावेद काफी देर तक कब्र के पास ही बैठे रहे।
इस तरह उतारा कर्ज
काफी देर तक बैठने के बाद जावेद उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू कब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज दी। पलट कर देखा, तो साहिर के एक दोस्त अशफाक साहब थे। अशफाक उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे। उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, ’आपके पास कुछ पैसे पड़ें हैं क्या? वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाजी में ऐसे ही आ गया’, जावेद साहब ने अपना पर्स निकालते हुआ पूछा, ‘हां-हां, कितने रुपए देने हैं’ उन्होंने कहा, ’दो सौ रुपए’…।
नोट : किस्सा किताब ’साहिर की शायराना जादूगरी’ का है, जहां लेखक से जावेद अख्तर ने इस किस्से का जिक्र किया था।

 
														
