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America : क्यों अमेरिका को अब भी महिला राष्ट्रपति से झिझक होती है

by Rakesh Pandey
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नई दिल्ली : आज से करीब 250 साल पहले जब अमेरिका का गठन हुआ था, तब से लेकर अब तक, यह देश दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में उभरा है। बावजूद इसके, अब तक अमेरिका ने अपनी व्हाइट हाउस की मेज़बानी के लिए एक भी महिला राष्ट्रपति को स्वीकार नहीं किया है। अमेरिका का राजनीतिक तंत्र और सामाजिक संरचना लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन महिला नेतृत्व को लेकर जो मानसिकता है, वह कहीं न कहीं सदियों पुरानी सोच को ही दर्शाती है।

इतिहास में महिलाओं की राष्ट्रपति बनने की कोशिशें

अमेरिकी राजनीति में महिलाओं का संघर्ष किसी से छिपा नहीं है। अमेरिकी संसद में महिलाओं की एंट्री और उनके द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी की कहानी एक लंबी और संघर्षपूर्ण यात्रा रही है। 1872 में विक्टोरिया वुडहल पहली महिला बनीं जिन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में भाग लिया था, लेकिन उनकी उम्र उस समय संविधान द्वारा निर्धारित उम्र से कम थी, इस कारण उनकी दावेदारी को अस्वीकार कर दिया गया। वुडहल की उम्मीदवारी से पहले भी 1866 में एलिजाबेथ कैडी स्टैन्टन ने राष्ट्रपति चुनाव में कूदने की कोशिश की थी, लेकिन उस समय उनका समर्थन और संसाधन बेहद सीमित थे। ऐसे में उन्हें केवल 24 वोट ही मिल पाए।

इसके बाद, 20वीं सदी में भी कई महिलाएं राष्ट्रपति चुनाव में उतरीं, लेकिन कोई भी महिला उम्मीदवार आगे नहीं बढ़ पाई। मार्गेट चेज़ स्मिथ, बेल्वा लॉकवुड, शर्लिन मिशेल, और शर्ली चिशोल्म जैसी महिलाओं ने अपनी दावेदारी पेश की, लेकिन उन्हें प्राइमरी चुनाव से आगे बढ़ने का मौका कभी नहीं मिला।

शर्ली चिशोल्म की ऐतिहासिक दावेदारी

शर्ली चिशोल्म, जो 1968 में अमेरिकी संसद में पहुंचने वाली पहली अफ्रीकी-अमेरिकी महिला थीं, 1972 में डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति चुनाव में उतरीं। हालांकि उनका सफर भी जल्दी खत्म हो गया और प्राइमरी चुनावों में ही उनकी उम्मीदवारी समाप्त हो गई। शर्ली ने बाद में कहा था कि उन्हें सिर्फ अपने रंग के कारण नहीं, बल्कि महिला होने की वजह से राजनीति में ज्यादा संघर्ष करना पड़ा। उनका यह बयान अमेरिकी समाज में महिलाओं के लिए सीमित अवसरों और चुनौतियों को उजागर करता है।

महिला राष्ट्रपति के प्रति अमेरिका की झिझक

अमेरिका का इतिहास महिलाओं के अधिकारों को लेकर लगातार बदलाव की कहानी है। 1920 में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार मिला, लेकिन यह अधिकार पाने में उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। ऐसे में सवाल उठता है कि एक ऐसा देश, जिसने लोकतंत्र और समानता के मूल सिद्धांतों का प्रचार किया है, क्यों अपने सबसे उच्चतम पद यानी राष्ट्रपति के लिए महिला उम्मीदवार को स्वीकार करने में झिझकता है?

इसका कारण केवल सामाजिक संरचना नहीं है, बल्कि पुरुषों के प्रभुत्व वाली सोच भी इसका मुख्य कारण है। 1937 में गैलप के एक सर्वे में 64% लोगों ने माना था कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं राष्ट्रपति पद के लिए ज्यादा योग्य नहीं हैं। यह मानसिकता आज भी कहीं न कहीं मौजूद है, और यही सोच महिलाओं के राष्ट्रपति बनने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी है।

सामाजिक बदलाव और नारीवाद की लहर

अमेरिका में फेमिनिज्म की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। 1848 में सेनेका फॉल्स कन्वेंशन में महिलाओं ने अधिकारों की मांग उठाई थी, और इसके बाद ही महिलाओं को वोटिंग का अधिकार मिला। लेकिन महिला अधिकारों की लड़ाई सिर्फ वोटिंग तक सीमित नहीं रही। 20वीं सदी के मध्य में, खासकर सेकंड वेव फेमिनिज्म ने महिला के शरीर, उनके चुनाव और घरेलू हिंसा जैसे मसलों पर जोर दिया। तीसरी और चौथी लहर ने अफ्रीकी महिलाओं के अधिकारों और मी टू जैसे आंदोलनों को सामने लाया।

फिर भी, यह सब होते हुए भी अमेरिका में महिलाएं राष्ट्रपति बनने के योग्य नहीं मानी जातीं। पुरुषों की दुनिया मानी जाने वाली राजनीति में महिलाओं की जगह धीरे-धीरे ही बनी है, और व्हाइट हाउस तक पहुंचने के लिए महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक संघर्ष करना पड़ता है।

क्या बदलने की उम्मीद है?

समय के साथ अब स्थिति थोड़ी बदलने लगी है। 2016 में हिलेरी क्लिंटन डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनीं, और उन्होंने इतिहास रचा, लेकिन वे भी राष्ट्रपति पद तक नहीं पहुंच पाईं। इसके बावजूद उनका अभियान महिलाओं और समाज के विभिन्न वर्गों के लिए एक प्रेरणा साबित हुआ। 2020 में कमला हैरिस ने उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की, जिससे यह साबित हुआ कि अमेरिकी समाज में महिलाओं के लिए दरवाजे खुलने लगे हैं।

फिर भी, अमेरिका की राजनीति में पूरी तरह से महिलाओं के लिए बराबरी की स्थिति अब तक हासिल नहीं हो पाई है। औरतों के लिए सत्ता की यह दीवार अब भी इतनी मजबूत है कि कोई महिला राष्ट्रपति बनने की कगार तक नहीं पहुंच सकी। यह संकेत करता है कि अमेरिका को अपने समाज और राजनीतिक सोच में और भी बड़ा बदलाव लाने की जरूरत है।

अमेरिका, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश और सुपरपावर माना जाता है, ने अब तक महिला राष्ट्रपति को स्वीकार नहीं किया है। जबकि दुनिया के कई देशों में महिलाएं सत्ता में हैं, अमेरिकी समाज अभी भी महिलाओं को राष्ट्रपति पद के लिए तैयार नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि, जबकि महिलाओं ने फेमिनिज़म की लहर के माध्यम से दुनिया भर में अधिकारों की लड़ाई लड़ी है, अमेरिका अभी भी अपने व्हाइट हाउस में महिला राष्ट्रपति के पदार्पण का इंतजार कर रहा है।

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