Jharkhand Bureaucracy : हफ्ते बीत गए। गुरु के दीदार नहीं हुए। पहली फुर्सत में निकल पड़ा। यह सोचते-सोचते, जानें- गुरु इन दिनों कौन सी उलझन सुलझा रहे हैं। अड्डे पर पहुंचा तो सब कुछ सामान्य सा लगा। गुरु चारपाई पर लेटे-लेटे संगीत का आनंद ले रहे थे। अभिवादन करते हुए कमरे में पहुंचा। गुरु जैसे इंतजार ही कर रहे थे। देखते ही बोले- आओ, आओ, सोच ही रहा था कि आओगे। कुछ नया बताओगे। क्या चल रहा तुम्हारे नौकरशाही के मोहल्ले में? दांव उल्टा पड़ता दिखा। प्रश्नकर्ता ही पहले सवालों में था। प्रश्न था तो उत्तर देना था। प्रत्युत्तर में कहा, ‘इधर काफी व्यस्त रहा गुरु, कहीं कुछ पता चला नहीं। कमरे में एफएम बज रहा था… खामोश लब हैं, झुकी हैं पलकें, दिलों में उल्फत नई-नई है…।
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गजल की लाइनों के साथ उत्तर ने गुरु के चेहरे के भाव बदल दिए। गुरु ने फिर सवाल किया, सच बता रहे हो या जादूगरी सिखा रहे हो। अब सफाई देने की बारी थी, नहीं गुरु, आपसे क्या और क्यों छिपाएंगे। गुरु बोले, नहीं- नहीं, बात दरअसल यह है कि नई नवेली पौध ने नई लकीर खींच दी है और तुम्हें पता भी नहीं चला। गुरु और गजल का कनेक्शन कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। पूरा माजरा समझने के लिए पहले भाव को पढ़ने की कोशिश की। फिर पूछा, ‘क्या बात है गुरु?’ कुछ बताइए, गुरु की मुस्कुराहट बढ़ गई। समझ में आ रहा था कि अब कुछ बड़ा सा फूटने वाला है। गुरु बोले, बड़ी पुरानी एक कहावत है। नया, नया… प्याज ज्यादा छीलता है।
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एक जनाब ने वर्षों से चली आ रही परंपरा तोड़ दी है। अब नई परिपाटी से दूसरे मोहल्लों में तनाव है। मोहल्ले के मालिकान यही कहते हुए सुने जा रहे हैं, ‘अरे, क्या जरूरत थी, आ बैल मुझे मार करने की।’ गुरु लय में आ चुके थे सो, टोकना उचित नहीं था। जिज्ञासाभरी निगाहों से बस देखता और सुनता रहा। प्रसंग के पीछे की कथा प्रारंभ हो चुकी थी। कड़ियों को जोड़ते हुए गुरु आगे बढ़े- बोले, मामला रोका-टोका आंदोलन से शुरू हुआ। एक समुदाय की ओर से संवैधानिक दर्जे में बदलने की आवाज उठी। पूरे सूबे में हुक्मरान हालात को संभालने में पसीना-पसीना हो गए। कुछ दिनों बाद दूसरा पक्ष प्रतिरोध में उतरा। अलग-अलग मोहल्लों में प्रदर्शन शुरू हुए। बारी छऊ वाले मोहल्ले की आई। अब तक परंपरा रही है कि चाहे जितने लोग जमा हों। चीखें-चिल्लाएं। कागज सौंपने के लिए आंदोलनकारी ही सीढ़ियां चढ़ते रहे।
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कभी तीन या कभी पांच। सराय में अधीनस्थ ‘ज्ञान’ वर्धन ने नए साहब को ‘तुरुप का इक्का’ थमा दिया। सलाह दे डाली कि क्यों न आप कमरे से खुद बाहर जाकर लोगों से मिल लें। भीड़ के बीच कागज स्वीकार कर लें। हाकिम को सलाह रास आ गई। साहब पहुंच गए भीड़ के बीच। खाकी वाले सहयोगी संग पूरे लाव-लश्कर के साथ। अपनापन दिखा कागज लिया। इस तरह इस नए हाकिम ने नई व्यवस्था बांध दी। अब ऐसा हो गया कि इसे नई नजीर मान लिया गया है। जगह-जगह आंदोलनकारी बड़े हाकिम के आने तक प्रदर्शन में जमे रहने की जिद ठान बैठ रहे हैं। टाटा के नगर में फिर कहानी दोहराई गई। परंपरा के अनुसार बड़े हाकिम कमरे में बैठे इंतजार करते रहे।
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उन्होंने सोचा कि चार-पांच लोग आएंगे। कागज लेकर उन्हें रुखसत कर दिया जाएगा। पर, ऐसा हुआ नहीं। साहब पड़े रहे, लोग अड़े रहे। तनाव बढ़ने लगा। देखते-देखते चार घंटे बीत गए। कोई टस से मस नहीं हुआ। आखिर हुक्मरान को ही झुकना पड़ा। बाहर निकले। कमरे से बाहर। सीढ़ियों से नीचे। भीड़ के बीच। पहले अपनापन दिखाया, कागज उठाया और हंसी के साथ बात ऊपर पहुंचाने का भरोसा देकर वापस हुए। बात उठी तो पता चला, पड़ोस के मोहल्ले में हुई शुरुआत, नए दस्तूर में बदल गई है।
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कई मोहल्ले के मालिक तनाव में हैं। कमरे में बैठकर काम करें या सबकी मांगों की फेहरिस्त स्वीकार करें। यह तो लब को खामोश और नजरों को झुकानेवाली बात हो गई। दूसरी ओर हक-हुकूक की बात करनेवाले कह रहे हैं- आखिर हमारे संविधान में सबको बराबरी का हक है। अगर किसी एक के लिए हाकिम नीचे आ सकते हैं तो दूसरे के लिए क्यों नहीं। गुरु ने कमरे में बैठे-बैठे दिवाली से पहले सूचना का बड़ा विस्फोट कर दिया था। अब बाहर निकल कर नजारा देखने का वक्त था। सो, हाथ जोड़े और खुद वहां से रुखसत हो लिया।
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