

- पुस्तक समीक्षा : डॉ. अविनाश कुमार सिंह
साहित्य जब अपना विषय चुनता है तो वह जन को केंद्र में रखता है। कई बार यह प्रत्यक्ष होता है और कई बार परोक्ष। लेखन की सभी विधाएं इस नियम का अनुपालन करती हैं, लेकिन जनप्रिय साहित्य वह बन पाता है कि जिसकी अवधारणा कालजयी हो। यानी वह साहित्य, जो अपने काल में रहते हुए भी भूत और भविष्य में लगभग समान रूप से सार्थक बना रहे। झारखंड के जल-जंगल और जमीन से जुड़े कवि लेखक सुशील कुमार की नई पुस्तक ‘बांसलोई में बहत्तर ऋतु’ इस मापदंड पर सर्वथा खरी उतरती है। पुस्तक के परिचय के रूप में यह बताना बेहद आवश्यक है कि इसका प्रकाशन हिन्द युग्म ने किया है। यह पुस्तक सभी प्रमुख ऑनलाइन प्लेटफार्म पर बिक्री के लिए उपलब्ध है।


पुस्तक के बारे में
यह अपने आप में एक विशिष्ट कृति है। इस पुस्तक के प्रथम खंड में केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, मंगलेश डबराल सहित आठ से अधिक समकालीन कवियों की रचनाओं के आलोक में पर्यावरण-संचेतना को सूक्ष्मता से समझने का प्रयास किया गया है। दूसरे खंड में कवि लेखक सुशील कुमार की अपनी चौंसठ पर्यावरण -निबद्ध कविताएं चार सर्गेां में शामिल की गई हैं। इनमें पहाड़, जंगल, नदी और तराई संयोजित हैं। ये कविताएं प्रकृति की पीड़ा, उसके संघर्ष और आशा का सुदीर्घ आख्यान रचती हैं।

पुस्तक का बीज तत्व
पुस्तक के प्रथम खंड की शुरुआत समकालीन कविता में पर्यावरण संचेतना से होती है, जो उनसठ कवियों की पर्यावरणीय कविताओं पर आधारित है। इसकी शुरुआत डीएम मिश्र की गजल से होती है। इसकी पंक्तियां ‘रक्त का संचार है पर्यावरण, सांस की रफ्तार है पर्यावरण …।’ समकालीन हिंदी साहित्य और पर्यावरण के बीच के अंतर्संबंधों को लेकर शुरू हुई यह यात्रा ऋग्वेद, यजुर्वेद, महोपनिषद, स्कंदपुराण और आदिकाल तक अपनी दृष्टि ले जाती है। इसके बाद भक्तिकाल, रीतिकाल होते हुए आधुनिक काल के धरातल पर पहुंचती है। पुस्तक के पहले खंड में नरेश सक्सेना, बशीर बद्र, दिविक रमेश, रामकुमार कृषक, शंभु बादल, महेंद्र नेह, बजरंग बिश्नोई, कौशल किशोर, शैलेंद्र चौहान, हृदयेश मयंक, नरेंद्र पुंडरीक, स्वप्निल श्रीवास्तव की रचनाओं की गहन और मर्मस्पर्शी काव्यात्मक उपस्थिति है। दूसरे खंड में कवि लेखक सुशील कुमार ने पर्यावरण विषयक अपनी रचनाओं को शामिल किया है।

आलोचक की नजर में
यह रचना साहित्यिक जगत की कई परंपरागत मान्यताओं का विचलन करते हुए पाठकों के समक्ष एक नई अध्ययन सामग्री प्रस्तुत करती है। रचना के लिए विषय का चुनाव ही सर्वोपरि रहा है। इसके अतिरिक्त भाषा, विधा के बंधन को तोड़ने का प्रयास किया गया है। कवि-लेखक इन रचनाओं को दो अलग-अलग किताबों में बांटकर अपनी कृतियों की सूची बढ़ाने के मोह में नहीं पड़ा है। यह पूरी रचना साहित्य और विशेष तौर पर हिन्दी साहित्य को विषय अभाव के आरोप से मुक्त करती है। कवि-लेखक की यह रचना हिन्दी साहित्य में पर्यावरण एवं साहित्य के पारिस्थितिकीय पाठ जैसे नवाचारी विषयों पर शोध कार्य करने वाले छात्र-छात्राओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।
कवि-लेखक के बारे में
हिन्दी साहित्य जगत में सुशील कुमार की कविताएं अपनी अलग पहचान रखती हैं। झारखंड के जल, जंगल, जमीन की बात को साहित्य के राष्ट्रीय फलक तक पहुंचाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। सुशील कुमार झारखंड शिक्षा सेवा कैडर में जिला शिक्षा पदाधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। अबतक उनकी पांच कविता संग्रह और दो आलोचना ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं।
